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पद्मपुराणे
ततो जातेषु रत्नेषु तत्क्षणं सुकृतोदयात् । दशमो हरिषेणोऽभूच्चक्रवर्ती महोदयः ॥ ३८८ ॥ तथापि परया युक्तश्चक्रलाञ्छनया श्रिया । रहितं मेदनावल्या स्वं स मेने तृणोपमम् ॥ ३८९ ॥ ततः संवाहयन् प्राप्तो बलं द्वादशयोजनम् । सतापसवनोद्देशं नमयन् सर्वविद्विषः ॥ ३९०॥ ततः स तापसैभीतैर्विज्ञाय फलपाणिभिः । दत्तार्थः पूजितो वाक्यै शीर्दान पुरस्सरैः ॥३९१॥ शतमन्योश्च पुत्रेण जनमेजयरूढिना । तुष्टया नागवत्या च सा कन्यास्मै समर्पिता ||३९२ ॥ विधिना च ततो वृत्तं तयोर्वीवाह मङ्गलम् । प्राप्य चैतां पुनर्जन्म प्राप्तं मेने नृपोत्तमः || ३९३॥ ततः काम्पिल्य मागत्य युक्तश्चक्रधरश्रिया । द्वात्रिंशता नरेन्द्राणां सहस्राणां समन्वितः ॥ ३९४॥ शिरसा मुकुटम्यस्तमणिप्रकरभासिना । ननाम चरणौ मातुर्विनीतो रचिताञ्जलिः || ३९५ | ततस्तं तद्विधं दृष्ट्वा पुत्रं वप्रा दशानन । संभूता न स्वगात्रेषु तोषाव्याप्तलोचना ॥ ३९६ ॥ ततो भ्रामयता तेन सूर्यवर्णान् महारथान् । काम्पिल्यनगरे मातुः कृतं सफलमीप्सितम् ॥३९७॥ श्रमणश्रावकाणां च जातः परमसंमदः । बहवश्च परिप्राप्ताः शासनं जिनदेशितम् ॥ ३९८ ॥ तेनामी कारिता भान्ति नानावर्णजिनालयाः । भूपर्वतनदीसङ्ग पुरग्रामादिषून्नताः ॥ ३९९ ॥ कृत्वा चिरमसौ राज्यं प्रव्रज्य सुमहामनाः । तपः कृत्वा परं प्राप्तस्त्रिलोकशिखरं विभुः || ४०० ॥ हरिषेणस्य चरितं श्रुत्वा विस्मयमागतः । कृत्वा जिननमस्कारं दशास्यः प्रस्थितः पुनः || ४०१।।
दोनों ही कहीं भाग खड़े हुए || ३८७ || तदनन्तर उसी समय पुण्योदयसे रत्न प्रकट हो गये जिससे हरिषेण महान् अभ्युदयको धारण करनेवाला दसवाँ चक्रवर्ती प्रसिद्ध हुआ || ३८८|| यद्यपि वह चक्ररत्नसे चिह्नित परम लक्ष्मीसे युक्त हो गया था तो भी मदनावलीसे रहित अपने आपको तृणके समान तुच्छ समझता था || ३८९ || तदनन्तर बारह योजन लम्बी-चौड़ी सेनाको चलाता और समस्त शत्रुओंको नम्रीभूत करता हुआ वह तपस्वियों के आश्रम में पहुँचा ||३९० || जब तपस्वियोंको इस बात का पता चला कि यह वही है जिसे हम लोगोंने आश्रमसे निकाल दिया था तो बहुत ही भयभीत हुए । निदान, हाथोंमें फल लेकर उन्होंने हरिषेणको अर्घ दिया और आशीर्वाद से युक्त वचनोंसे उसका सम्मान किया || ३९१ || शतमन्युके पुत्र जनमेजय और माता नागवतीने सन्तुष्ट होकर वह कन्या इसके लिए समर्पित कर दी ॥ ३९२ ॥ तदनन्तर उन दोनोंका विधिपूर्वक विवाहोत्सव हुआ । इस कन्याको पाकर राजा हरिषेणने अपना पुनर्जन्म माना ||३९३॥ तदनन्तर चक्रवर्तीकी लक्ष्मीसे युक्त होकर वह काम्पिल्यनगर आया । बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उसके साथ थे || ३९४ | | उसने मुकुटमें लगे मणियोंके समूह से सुशोभित शिर झुकाकर तथा हाथ जोड़कर बड़ी विनयसे माताके चरणोंमें नमस्कार किया ॥ ३९५ ॥ सुमाली दशाननसे कहते हैं कि हे दशानन ! उस समय उक्त प्रकारके पुत्रको देखकर वप्राके हर्षका पार नहीं रहा । वह अपने अंगोंमें नहीं समा सकी तथा हर्षके आँसुओंसे उसके दोनों नेत्र भर गये ॥३९६॥ तदनन्तर उसने सूर्यके समान तेजस्वी बड़े-बड़े रथ काम्पिल्यनगर में घुमाये और इस तरह अपनी माताका मनोरथ सफल किया ॥ ३९७|| इस कार्यसे मुनि और श्रावकों को परम हर्ष हुआ तथा बहुत से लोगोंने जिन धर्मं धारण किया ॥ ३९८ ॥ पृथिवी, पर्वत, नदियोंके समागम स्थान, नगर तथा गाँव आदिमें जो नाना रंगके ऊँचे-ऊँचे जिनालय शोभित हो रहे हैं वे सब उसीके बनवाये हैं ।। ३९९ ॥ उदार हृदयको धारण करनेवाले हरिषेणने चिर काल तक राज्य कर दीक्षा ले ली और परम तपश्चरण कर तीन लोकका शिखर अर्थात् सिद्धालय प्राप्त कर लिया ॥४०० ॥ इस प्रकार हरिषेण चक्रवर्तीका चरित्र सुनकर दशानन आश्चर्यको प्राप्त हुआ । तदनन्तर जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर वह आगे बढ़ा ||४०१ ॥
१. मदनावल्या : म. । २. वैवाह - म. ।
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