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पद्मपुराणे
एतावन्तु ब्रवीम्येतौ भुजौ केयूरपीडितौ । छिनधि न क्षणादेनं यदि गृह्णाम्यनेकपम् ||४१५ । ततः कामगमारुह्य विमानं पुष्पकाभिधम् । गत्वा पश्यति तं नागं सल्लक्षणसमन्वितम् ॥ ४१६ ।। स्निग्धेन्द्रनीलसंकाशं राजीवप्रभतालुकम् । दीर्घवृत्तौ सुधाफेनवलक्षौ बिभ्रतं रदौ ||४१७ || हस्तानां सप्तकं तुङ्गं दशकं परिणाहतः । आयामतश्च नवकं मधुपिङ्गललोचनम् ॥४१८॥ निमग्नवंशमग्राङ्गतुङ्गमायतबालधिम् । द्राधिष्ठकरमत्यन्तस्निग्धपिङ्ग नखाङ्कुरम् ||४१९|| वृत्तपीन महाकुम्भं सुप्रतिष्ठाङ्घ्रिमूर्जितम् । अन्तर्मधुरधीरोरुगर्जितं विनयस्थितम् ॥४२०॥ गलद्गण्डस्थलामोदसमाकृष्टालिवेणिकम् । कुर्वन्तं दुन्दुभिध्वानं कर्णतालान्तताडनैः ॥४२१॥ भग्नावकाशमाकाशं कुर्वाणमिव पार्थवात् । लीलां विदधतं चित्तचक्षुश्चोरणकारिणीम् ॥ ४२२॥ दृष्ट्वा च तं परां प्रीतिं प्रापरत्नश्रवः सुतः । कृतार्थमिव चात्मानं मेने हृष्टतनूरुहः ॥४२३॥ ततो विमानमुज्झित्वा बद्ध वा परिकरं दृढम् । शङ्ख तस्य पुरो दध्मौ शब्दपूरितविष्टपम् ॥४२४॥ ततः शङ्खस्वनोद्भूतचित्तक्षोभः सगर्जितः । करी दशमुखोद्देशं चलितो बलगर्वितः ॥४२५॥ वेगादभ्यायतस्यास्य पिण्डीकृत्य सितांशुकम् । उत्तरीयं च चिक्षेप क्षिप्रं विभ्रमदक्षिणः ॥ ४२६॥ दन्ती जिप्रति तं यावत्तावदुत्पत्य गण्डयोः । अस्पृशद्यक्षमर्दस्तं भृङ्गौघध्वनिचण्डयोः ॥ ४२७ ॥ करेण वेष्टितुं यावच्चक्रे वाञ्छां मतङ्गजः । तावद्दंष्टान्तरेणासौ निःसृतो लाघवान्वितः ॥४२८॥ अङ्गेषु च चतुर्ध्वस्य स्पृशन् दन्ततले मुहुः । भ्रान्तिविद्युच्चलश्चक्रे प्रेङ्खणं रदनाप्रयोः ॥४२९॥
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डालूँ।।४१४-४१५।। तदनन्तर वह इच्छानुसार चलनेवाले पुष्पक विमानपर सवार हो, जाकर उत्तम लक्षणोंसे युक्त उस हाथीको देखता है ॥ ४१६ ॥ वह हाथी चिकने इन्द्रनील मणिके समान था, उसका तालु कमलके समान लाल था, वह लम्बे, गोल तथा अमृतके फेनके समान सफेद दाँतों को धारण कर रहा था ॥४१७॥ वह सात हाथ ऊँचा, दस हाथ चोड़ा और नौ हाथ लम्बा था । उसके नेत्र मधुके समान कुछ पीतवर्णके थे ||४१८॥ उसकी पीठकी हड्डी मांसपेशियों में निमग्न थी, उसके शरीरका अगला भाग ऊँचा था, पूँछ लम्बी थी, सूँड़ विशाल थी, और नखरूपी अंकुर चिकने तथा पीले थे ॥४१९|| उसका मस्तक गोल तथा स्थूल था, उसके चरण अत्यन्त जमे हुए थे, वह स्वयं बलवान् था, उसकी विशाल गर्जना भीतर से मधुर तथा गम्भीर थी और वह विनय से खड़ा था ॥४२०॥ उसके गण्डस्थलसे जो मद चू रहा था उसकी सुगन्धिके कारण भ्रमरोंकी पंक्तियाँ उसके समीप खिंची चली आ रही थीं। वह कर्णरूपी तालपत्रों की फटकार से दुन्दुभिके समान विशाल शब्द कर रहा था ॥४२१॥ वह अपनी स्थूलता के कारण आकाशको मानो निरवकाश कर रहा था और चित्त तथा नेत्रों को चुरानेवाली क्रीड़ा कर रहा था ।। ४२२ ॥ उस हाथीको देख दशानन परम प्रीतिको प्राप्त हुआ । उसने अपने आपको कृतकृत्य-सा माना और उसका रोम-रोम हर्षित हो उठा ॥४२३॥ तदनन्तर दशाननने विमान छोड़कर अपना परिकर मजबूत बाँधा और उसके सामने शब्दसे लोकको व्याप्त करनेवाला शंख फूँका ॥४२४ || तत्पश्चात् शंखके शब्द से जिसके चित्तमें क्षोभ उत्पन्न हुआ था तथा जो बलके गर्वसे युक्त था ऐसा हाथी गर्जना करता हुआ दशाननके सम्मुख चला ||४२५ || जब हाथी वेगसे दशाननके सामने दौड़ा तो घूमने में चतुर दशाननने उसके सामने अपना सफेद चद्दर घरियाकर फेंक दिया ॥ ४२६ ॥ हाथी जबतक उस चद्दरको सूँघता है तबतक दशाननने उछलकर भ्रमरसमूहके शब्दोंसे तीक्ष्ण उसके दोनों कपोलोंका स्पर्श कर लिया ॥४२७॥ हाथी जबतक दशाननको सूँड़से लपेटनेकी इच्छा करता है कि तबतक शीघ्रतासे युक्त दशानन उसके दांतोंके बीचसे बाहर निकल गया ||४२८|| घूमनेमें बिजलीके समान चंचल दशानन उसके चारों ओरके अंगों का स्पर्श करता था। बार-बार दाँतोंपर टक्कर लगाता था और कभी खोंसोंपर
१. पृयोर्भावः पार्थवं तस्मात् स्थौल्यात्, पार्थवां (?) म. 1
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