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अष्टमं पर्व
अथास्य पृष्ठमारूढः सविलासं दशाननः । विनीतश्च स्थितो दन्ती सच्छिष्य इव तरक्षणात् ॥४३०॥ ततः सकुसुमा मुक्ताः साधुवादाः मुहुः सुरैः । सशब्दा च महामोदं प्राप्ता खेचरवाहिनी ॥४३॥ त्रिलोकमण्डनामिख्यां प्रापायं दशवक्त्रतः । त्रैलोक्यं मण्डितं तेन यतो मेने स मोदवान् ॥४३२॥ महोत्सवः कृतस्तस्य लाभे परमदन्तिनः । नृत्यद्भिः पर्वते रम्ये खेचरैः पुष्पसंकुलैः ॥४३३॥ तथैषां जाग्रतामेष मर्यादामात्रकारणम् । कृतः प्रभाततूर्येण नादो गहरपेशलः ॥४३॥ दिवसेन ततो बिम्बं रवेः कलशमङ्गलम् । उपनीतं दशास्याय सेवाकौशलवेदिना ॥४३५।। ततः सुखासनासीने विहितस्वाङ्गकर्मणि । स्थिते दशमुखे दन्तिकथया खेचरावृते ॥४३६॥ सहसा वियतः प्राप्तः पुरुषः पुरु वेपथुः । स्वेदबिन्दुसमाकीर्णः संभ्रान्तः खेदमुद्द्वहन् ॥४३७॥ सप्रहारव्रणः साश्रुर्दर्शयजर्जरां तनुम् । व्यज्ञापयञ्च कृच्छ्रण ललाटे धारयन् करौ ।।४३८॥ दशमेऽह्नि दिनादस्माञ्चित्ते कृत्वा मवबलम् । अलंकारपुरावासान्निष्क्रम्योत्साहतोऽधिकात् ॥४३९॥ निजगोत्रक्रमायातं नगरं किं कुसंज्ञकम् । गृहीतुं भ्रातरौ यातौ सूर्यक्षरजसावुभौ ॥४४०॥ महाभिमानसंपन्नौ महाबलसमन्वितौ । विश्रब्धौ मवतो गर्वान्मन्यमानौ तृणं जगत् ॥४४१॥ एताभ्यां चोदितः क्षुब्धो लितान्तं विपुलो जनः । अवस्कन्देन संपत्य प्रचक्रे किङ्कलुण्टनम् ।।४४२।।
कृतान्तस्य ततो योद्धमुस्थितां भटसत्तमाः। स्वप्नवद्यत्पुरोद्दिष्ट (?) हेतिव्यापृतपाणयः ॥४४३॥ झूला झूलने लगता था ॥४२९॥ तदनन्तर दशानन विलासपूर्वक उसकी पीठपर चढ़ गया और हाथी उसी क्षण उत्तम शिष्यके समान विनीतभावसे खड़ा हो गया ॥४३०॥ उसी समय देवोंने फूलोंकी वर्षा की, बार-बार धन्यवाद दिये, और विद्याधरोंकी सेना कल-कल करती हुई परम हर्षको प्राप्त हुई ॥४३१॥ वह हाथी, दशाननसे 'त्रिलोकमण्डन' इस नामको प्राप्त हुआ। यथार्थमें उस हाथीसे तीनों लोक मण्डित हुए थे इसलिए दशाननने बड़े हर्षसे उसका 'त्रिलोकमण्डन' नाम सार्थक माना था।।४३२।। फूलोंसे व्याप्त उस रमणीय पर्वतपर नृत्य करते हुए विद्याधरोंने उस श्रेष्ठ हाथीके मिलनेका महोत्सव किया था ॥४३३॥
इस हाथीके प्रकरणसे यद्यपि सब लोग जाग रहे थे तो भी रात्रि और दिवसकी मर्यादा बतलानेके लिए प्रभातकालीन तुरहीने ऐसा जोरदार शब्द किया कि वह पर्वतकी प्रत्येक गुफामें गंज उठा ॥४३४॥ तदनन्तर सूर्य बिम्बका उदय हुआ सो ऐसा जान पड़ता था मानो चतुराईको जाननेवाले दिवसने दशाननके लिए मंगल-कलश ही समर्पित किया हो ॥४३५॥
तदनन्तर दशानन शारीरिक क्रियाएँ कर सोफापर बैठा था। साथ ही अन्य विद्याधर भी हाथोकी चर्चा करते हुए उसे घेरकर बैठे थे ॥४३६।। उसी समय आकाशसे उतरकर एक पुरुष वहाँ आया। वह पुरुष अत्यन्त काँप रहा था, पसीनेकी बूंदोंसे व्याप्त था, खेदको धारण कर रहा था, प्रहारजन्य घावोंसे सहित था, आँसू छोड़ रहा था और अपना जर्जर शरीर दिखला रहा था। उसने हाथ जोड़ मस्तकसे लगा बड़े दुःखके साथ निवेदन किया ॥४३७-४३८॥ कि हे देव ! आजसे दस दिन पहले हृदयमें आपके बलका भरोसा कर सूर्यरज और ऋक्षरज दोनों भाई, अपनी वंश-परम्परासे चले आये किष्क नगरको लेनेके लिए बड़े उत्साहसे अलंकारपुर अर्थात् पाताल लंकासे निकलकर चले थे ॥४३९-४४०॥ दोनों ही भाई महान् अभिमानसे युक्त, बड़ी भारी सेनासे सहित तथा निःशंक थे। वे आपके गवंसे संसारको तणके समान तुच्छ मानते ॥४४१।। इन दोनों भाइयोंकी प्रेरणासे अत्यन्त क्षोभको प्राप्त हुए बहुत-से लोग एक साथ कर किष्कुपुरको लूटने लगे ॥४४२॥ तदनन्तर जिनके हाथोंमें नाना प्रकारके शस्त्र चमक रहे थे ऐसे यम नामा दिक्पालके उत्तम योद्धा युद्ध करनेके लिए उठे सो मध्य रात्रिमें उन सबके बीच बड़ा १. -मारुह्य म. । २. दन्ती म. । ३. खेचरावृतः म. । ४. -मुच्छ्रिता म. । ५. स्वप्नयद्यत्पुरो दृष्टा म.।
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