________________
२००
पद्मपुराणे ततस्तेषां महान् जातो मध्यशर्वरि संयुगः । अन्योन्यशस्त्रसंपातकृतभूरिजनक्षयः ॥४४४॥ श्रुत्वा कलकलध्वानं स्वयं योद्धमथादरात् । यमः क्रोधेन निष्क्रान्तः संक्षुब्धार्णवदारुणः ॥४४५॥ आयातमात्रकेणैव तेन दुस्सहतेजसा । अस्मदीयं बलं भग्नं विविधायुधविक्षतम् ॥४४६।। अथासौ कथयन्नेवं दूतो. मूर्छामुपागतः । बीजितश्च पटान्तेन प्रबोधं पुनरागतः ॥४४७॥ किमेतदिति पृष्टश्च हृदयस्थकरोऽवदत् । जानामि देव तत्रैव वर्तेऽहमिति मूञ्छितः ।।४४८।। ततस्तत इति प्रोक्त ततो विस्मयवाहिना । रत्नश्रवःसुतेनासौ विश्रम्य पुनरब्रवीत् ।।४४९।। ततो नाथ बलं दृष्ट्वा नितान्तातरवाकुलम् । निजभृक्षरजा भग्नं वत्सलो योद्धुमुस्थितः ।।४५०॥ चिरं च कृतसंग्रामो यमेनातिबलीयसा । चेतसा भेदमप्राप्तो गृहीतः शत्रवञ्चितः ॥४५॥ उत्थितो युध्यमानेऽस्मिन्नथ सूर्यरजा अपि । चिरं कृतरणो गाढप्रहारो मूञ्छितो भृशम् ॥४५२॥ उद्यम्य क्षिप्रमात्मीयैः सामन्तैमखला वनम् । नीत्वा स श्वासमानीतः शीतचन्दनवारिणा ॥४५३॥ यमेन स्वयमात्मानं सत्यमेवावगच्छता । कारितं यातनास्थानं वैतरण्यादि पूर्बहिः॥४५४॥ ततो ये निर्जितास्तेन संयतीन्द्रेण वा जिताः । प्रेषिताः दुःखमरणं प्राप्यन्ते तत्र ते नराः॥४५५॥ वृत्तान्तं तमहं दृष्ट्वा कथमप्याकुलाकुलः । संभूतो दयितो भृत्यः क्रमादृक्षरजःकुले ॥४५६॥
नाम्ना शाखावली पुत्रः सुश्रेणीरणदक्षयोः । कृत्वा पलायनं प्राप्तो भवतस्त्रातुरन्तिकम् ॥४५७॥ भारी युद्ध हुआ। उस युद्ध में परस्परके शस्त्र प्रहारसे अनेक पुरुषोंका क्षय हुआ ॥४४३-४४४॥ अथानन्तर बड़ी गौरसे उनका कल-कल शब्द सुनकर यह दिक्पाल स्वयं क्रोधसे युद्ध करनेके लिए निकला। उस समय वह यम क्षोभको प्राप्त हुए समुद्रके समान भयंकर जान पड़ता था ॥४४५॥ जिसका तेज अत्यन्त दुःसह था ऐसे यमने आते हीके साथ हमारी सेनाको नाना प्रकारके शस्त्रोंसे घायल कर भग्न कर दिया ॥४४६।। अथानन्तर वह दूत इस प्रकार कहता-कहता बीचमें ही मूच्छित हो गया । वस्त्रके छोरसे हवा करनेपर पुनः सचेत हुआ ॥४४७॥ यह क्या है ? इस प्रकार पूछे जानेपर उसने हृदयपर हाथ रखकर कहा कि हे देव ! मुझे ऐसा जान पड़ा कि में वहीं पर हूँ। उसी दृश्यको सामने देख मैं मूच्छित हो गया ॥४४८॥
_ तदनन्तर आश्चर्यको धारण करनेवाले रावणने पूछा कि 'फिर क्या हुआ ?' इस प्रश्नके उत्तरमें वह कुछ विश्राम कर फिर कहने लगा ॥४४९॥ कि हे नाथ ! जब ऋक्षरजने देखा कि हमारी सेना अत्यन्त दुःखपूर्ण शब्दोंसे व्याकुल होती हुई पराजित हो रही है-नष्ट हुई जा रही है तब स्नेहयुक्त हो वह युद्ध करनेके लिए स्वयं उद्यत हुआ ॥४५०॥ वह अत्यन्त बलवान् यमके साथ चिरकाल तक युद्ध करता रहा। युद्ध करते-करते उसका हृदय नहीं टूटा था फिर भी शत्रुने छलसे उसे पकड़ लिया ॥४५१।। तदनन्तर जब ऋक्षरज युद्ध कर रहा था उसी समय सूर्यरज भी युद्धके लिए उठा। उसने भी चिरकाल तक युद्ध किया पर अन्तमें वह शस्त्रकी गहरी चोट खाकर मूच्छित हो गया ।।४५२॥ आत्मीय लोग उसे उठाकर शीघ्र ही मेखला नामक वनमें ले गये। वहाँ वह चन्दन मिश्रित शीतल जलसे श्वासको प्राप्त हो गया अर्थात् शीतलोपचारसे उसकी मूर्छा दूर हुई ॥४५३॥ लोकपाल यमने अपने आपको सचमुच ही यमराज समझकर नगरके बाहर वैतरणी नदी आदि कष्ट देनेके स्थान बनवाये ॥४५४॥ तदनन्तर उसने अथवा इन्द्र विद्याधरने जिन्हें युद्ध में जीता था उन सबको उसने उस कष्टदायी स्थानमें रखा सो वे वहाँ दुःखपूर्वक मरणको प्राप्त हो रहे हैं ॥४५५॥ इस वृत्तान्तको देख मैं बहत ही व्याकूल हैं। मैं ऋक्षरजकी वंशपरम्परासे चला आया प्यारा नौकर हूँ। शाखावली मेरा नाम है, मैं सुश्रोणी और रणदक्षका पुत्र हूँ। आप चूँकि रक्षक हो इसलिए किसी तरह भागकर १. -मुच्छ्रितः म. । २. उच्छ्रितः म. । ३. नीत्वा-श्वासन म. । ४. नगराद् बहिः, पूर्वकम् म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org :