________________
अष्टम पर्व
२०५
अथ मास्वन्महाशाला गम्भीरपरिखावृत्तान् । कुन्दशुभैर्महानीलनीलैर्जालककुक्षिषु ॥५११॥ पनरागारमेरुद्धः क्वचित्पुष्पमणिप्रभैः । गरुत्ममणिसंकाशैरन्यत्र निचितां गृहैः ॥५१२॥ शोभमानां निसर्गेण पुनश्च कृतभूषणाम् । रक्षोनाथागमे भक्तः पौरैरद्भुतसंमदैः ॥५१३॥ अत्यन्तमधिकां कुर्वन् शोमां गिरिनिभैर्गजैः । महाप्रासादसंकाशैः स्यन्दनै रत्नरञ्जितैः ॥५१४॥ अश्ववृन्दैः क्वणद्धमचक्रकैश्चलचामरैः । विमानैः शिखरारूढदूराकाशबहुप्रभैः ॥५१५॥ छत्रैः शशाङ्कसंकाशैर्ध्वजैरुद्धृतकोटिभिः । वन्दिवृन्दारकौघेण कृतमङ्गलनिस्वनः ॥५१६॥ वीणावेणुविमिश्रेण शङ्खनादानुगामिना । तूर्यनादेन निःशेष दिनमोविदितात्मना ॥५१७॥ प्रविवेश निजामीशो लङ्का शङ्काविवर्जितः । त्रिदशेश इवोदारो दशास्यः शासिता हितः ॥५१८॥ ततो गोत्रक्रमायातनाथदर्शनलालसाः । गृहीत्वाघ' फलैः पुष्पैः पत्रै रत्नैश्च कल्पितम् ॥५१९॥ गृहीतभूषणात्यन्तचारुवस्त्रादिसंपदः । नृत्यद्भिर्गणिकासङ्घरन्विता नेत्रहारिभिः ॥५२०॥ सर्वे पौराः समागत्य प्रयुक्ताशीगिरो मुहुः । आनर्चुः सनमस्कारा यथावृद्धपुरस्सराः ॥५२१॥ विसर्जिताश्च ते तेन संप्राप्तप्रतिमाननाः । यथास्वं निलयं जग्मुस्तद्गुणोक्तिगताननाः ॥५२२॥ अथ तद्भवनं तस्य कौतुकव्याप्तबुद्धिमिः । नारीभिः कृतभूषाभिः पूरित तदिदृक्षुमिः ॥५२३॥ गवाक्षामिमुखाः काश्चित्वराविनस्तवाससः । अन्योऽन्यवाधविच्छिन्नमुक्काहारविभूषणाः ॥५२४॥
अथानन्तर जिसमें बड़ी-बड़ी शालाएँ देदीप्यमान हो रही थीं, जो गम्भीर परिखासे आवत थी, जो झरोखोंमें लगे हुए मणियोंसे कहीं तो कुन्दके समान सफेद, कहीं महानील मणियोंके समान नील. कहीं पद्मरागमणिके समान लाल, कहीं पूष्परागमणियोंके समान प्रभास्वर और कहीं गरुड़मणियोंके समान गहरे नील वर्णवाले महलोंसे व्याप्त थी । जो स्वभावसे ही सुशोभित थी फिर राक्षसोंके अधिपति दशाननके शुभागमनके अवसरपर आश्चर्यकारी हर्षसे भरे भक्त नागरिकजनोंके द्वारा और भी अधिक सुशोभित की गयी थी ऐसी अपनी लंका नगरीमें हितकारी उदार शासक दशाननने निःशंक हो इन्द्रके समान प्रवेश किया। प्रवेश करते समय दशानन, पर्वतोंके समान ऊँचेऊँचे हाथियों, बड़े-बड़े महलोंके समान रत्नोंसे रंजित रथों, जिनकी लगामके स्वर्णमयी छल्ले शब्द कर रहे थे एवं जिनके आजूबाजू चमर ढोले जा रहे थे ऐसे घोड़ों, जिनके शिखर दूर तक आकाशमें चले गये थे ऐसे रंगबिरंगे विमानों, चन्द्रमाके समान उज्ज्वल छत्रों, और जिनका अंचल आकाशमें दूर-दूर तक फहरा रहा था ऐसी ध्वजाओंसे लंकाकी शोभाको अत्यन्त अधिक बढ़ा रहा था। उत्तमोत्तम चारणोंके झुण्ड मंगल शब्दोंका उच्चारण कर रहे थे। वीणा, बाँसुरी और शंखोंके शब्दसे मिश्रित तुरहीकी विशालध्वनिसे समस्त दिशा और आकाश व्याप्त हो रहे थे ॥५११५१८|| तदनन्तर कुलक्रमसे आगत स्वामीके दर्शन करनेकी जिनकी लालसा बढ़ रही थी, जिन्होंने
मषण तथा अत्यन्त सुन्दर वस्त्रादि सम्पदाएँ धारण कर रखी थीं और जो नृत्य करती हुई नयनाभिराम गणिकाओंके समूहसे युक्त थे, ऐसे समस्त पुरवासी जन, फलों-फूलों, पत्तों और रत्नोंसे निर्मित अर्घ लेकर बार-बार आशीर्वादका उच्चारण करते हुए दशाननके समक्ष आये। उन पुरवासियोंने वृद्धजनोंको अपने आगे कर रखा था। उन्होंने आते ही दशाननको नमस्कार कर उसकी पूजा की ॥५१९-५२१।। दशाननने सबका सम्मान कर उन्हें विदा किया और सब अपने मुखोंसे उसीका गुणगान करते हुए अपने-अपने घर गये ॥५२२।। अथानन्तर जिनकी बुद्धि कौतुकसे व्याप्त हो रही थी और जिन्होंने तरह-तरहके आभूषण धारण कर रखे थे ऐसी उसकी दर्शनाभिलाषी स्त्रियोंसे दशाननका घर भर गया ॥५२३।। उन स्त्रियोंमें कितनी ही स्त्रियाँ झरोखोंके सम्मुख आ रही थीं। शीघ्रताके कारण उनके वस्त्र खुल रहे थे और परस्परकी धक्काधूमीसे उनके १. गृहीता, म. । २. आनर्तुः म. । ३. प्रतिमानताः म.। ४. त्वरा विश्रस्त म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org