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पद्मपुराणे
यथेदं स्पन्दते चक्षुर्दक्षिणं मम सांप्रतम् । तथा च कल्पयाम्येषा प्रियसंगमकारिणी ॥३६०॥ पुनश्चानेन सा पृष्टा भने वेदय कारणम् । ललामसंकथासंगात करें तावत्प्रतपय ॥३६१॥ जगाद चेति राजास्ति पुरे सूर्योदये वरे । नाम्ना शक्रधनुस्तस्य भार्या धीरिति कीर्तिता ॥३६२।। गुणरूपमदग्रस्ता जयचन्द्रा तयोः सुता । पुरुषद्वेषिणी जाता पितृवाक्यापकर्णिनी ॥३६३।। यो यस्तस्या मयालिख्य पटके दर्शितः पुरा । सकले भरतक्षेत्रे नासौ तस्या रुचौ स्थितः ॥३६४॥ ततो भवान् मया तस्या दर्शितः पट्टकस्थितः। गाढाकल्पकशल्येन शल्यिता चेदमब्रवीत् ॥३६५।। कामभोगोपमानेन समं यदि न युज्यते । मृत्यु ततः प्रपत्स्येऽहं न त्वन्यमधमं वरम् ।।३६६॥ प्रतिज्ञा च पुरस्तस्या मयेयं दुष्करा कृता । शोकमत्युत्कटं दृष्ट्वा तद्गुणाकृष्टचित्तया ॥३६७।। यदि तं नानये शीघ्रं त्वन्मानसमलिम्लुचम् । ज्वालाजटालमनिलं प्रविशामि ततः सखि ॥३६८॥ प्रतिज्ञायेति पुण्येन प्राप्तोऽसि महता मया। त्वत्प्रसादाकरिष्यामि प्रतिज्ञां फलसंगताम् ॥३६९।। सूर्योदयपुरं चैषा प्राप्ता स च निवेदितः । आनीतः शक्रचापाय कन्यायै च मनोहरः ॥३७०॥ ततः पाणिग्रहश्चक्रे तयोरद्भुतरूपयोः । विस्मयापन्नचेतोमिः स्वजनैरभिनन्दितः ॥३७१॥ संपादितप्रतिज्ञा च प्राप्ता वेगवती परम् । संमानं राजकन्याभ्यां प्रमदं च तथा यशः ॥३७२।। त्यक्त्वा नौ धरणीवासो गृहीतः पुरुषोऽनया । इति संचिन्त्य कुपितौ तस्यामैथुनिकौ च तौ ॥३७३।।
इसकी आकृति ही बतला रही है कि यह पर-पीड़ासे निवृत्त है अर्थात् कभी किसीको पीड़ा नहीं पहुंचाती ॥३५९॥ और चूँकि इस समय मेरी दाहिनी आँख फड़क रही है इससे निश्चय होता है कि यह अवश्य ही प्रियजनोंका समागम करावेगी ॥३६०॥ तब हरिषेणने उससे फिर पूछा कि हे भद्रे ! तू ठीक-ठीक कारण बता और मनोहर कथा सुनाकर मेरे कानोंको सन्तुष्ट कर ॥३६१॥ इसके उत्तरमें वेगवतीने कहा कि सूर्योदय नामक श्रेष्ठ नगरमें राजा शक्रधनु रहता है। उसकी स्त्री धी नामसे प्रसिद्ध है। उन दोनोंके जयचन्द्रा नामकी पुत्री है जो कि गुण तथा रूपके अहंकारसे ग्रस्त है, पुरुषोंके साथ द्वेष रखती है और पिताके वचनोंकी अवहेलना करती है ॥३६२-३६३॥ समस्त भरत क्षेत्रमें जो-जो उत्तम पुरुष थे उन सबके चित्रपट बनाकर मैंने पहले उसे दिखलाये हैं पर उसकी रुचिमें एक भी नहीं आया ॥३६४॥ तब मैंने आपका चित्रपट उसे दिखलाया सो उसे देखते ही वह तीव्र उत्कण्ठारूपी शल्यसे विद्ध होकर बोली कि कामदेवके समान इस पुरुषके साथ यदि मेरा समागम न होगा तो मैं मृत्युको भले ही प्राप्त हो जाऊँगी पर अन्य अधम मनुष्यको प्राप्त नहीं होऊँगी ॥३६५-३६६।। उसके गुणोंसे जिसका चित्त आकृष्ट हो रहा था ऐसी मैंने उसका बहुत भारी शोक देखकर उसके आगे यह कठिन प्रतिज्ञा कर ली कि तुम्हारे मनको चुरानेवाले इस पुरुषको यदि मैं शीघ्र नहीं ले आऊँ तो हे सखि ! ज्वालाओंसे युक्त अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगी॥३६७-३६८॥ मैंने ऐसी प्रतिज्ञा की ही थी कि बड़े भारी पुण्योदय से आप मिल गये । अब आपके प्रसादसे अपनी प्रतिज्ञाको अवश्य ही सफल बनाऊँगी ॥३६९॥ ऐसा कहती हुई वह सूर्योदयपुर आ पहुँची। वहाँ आकर उसने राजा शक्रधनु और कन्या जयचन्द्राके लिए सूचना दे दी कि तुम्हारे मनको हरण करनेवाला हरिषेण आ गया है ॥३७०॥ तदनन्तर आश्चर्यकारी रूपको धारण करनेवाले दोनों-वरकन्याका पाणिग्रहण किया गया। जिनका चित्त आश्चर्यसे भर रहा था ऐसे सभी आत्मीय जनोंने उनके उस पाणिग्रहणका अभिनन्दन किया था ॥३७१॥ जिसकी प्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी थी ऐसी वेगवतीने राजा और कन्यादोनोंकी ओरसे परम सन्मान प्राप्त किया था। उसके हर्ष और सुयशका भी ठिकाना नहीं था ॥३७२।। 'इस कन्याने हम लोगोंको छोड़कर भूमिगोचरी पुरुष स्वीकृत किया' ऐसा विचारकर १. पितृवाक्यापकर्षिणी म. । २. गाढाकल्पकशिल्पेन म.। ३-४. म. पुस्तकेऽनयोः श्लोकयोः क्रमभेदो वर्तते । ५. मैथुनिकाचितौ म.।
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