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पद्मपुराणे
नाम्ना नागवती तस्या माता तनुजया समम् । पूर्वमेव गता देशं शतमन्युयतिश्रितम् ॥३०३॥ नागवत्याः सुता तस्मिन दृष्ट्वा तं रूपशालिनम् । भन्मथस्य शरैर्विद्धा तनुविक्लवताकरैः ॥३०४॥ ततस्तामन्यथाभूतां दृष्ट्वा नागवती जगी। सुते भव विनीता त्वं स्मर वाक्यं महामुनेः ॥३०५॥ पूर्व हि मुनिना प्रोक्तं यथा त्वं चक्रवर्तिनः । भविता वनितारत्नमिति संज्ञानचक्षुषा ॥३०६॥ रक्तां च तस्य तां ज्ञात्वा भृशं भीतैरकीर्तितः । आश्रमात्तापसैमूहरिषेणो निराकृतः ॥३०७॥ ततो दग्धोऽपमानेन कन्यामादाय चेतसा । बभ्राम सततं श्लिष्टो भ्रामयैव स विद्यया ॥३०८॥ नाशने शयनीये न पुष्पपल्लवकल्पिते । फलानां भोजने नैव पाने वा सरसोऽम्भसः ॥३०९॥ न ग्रामे नगरे नोपवने रम्यलतागृहे । तिं लेभे समुत्कण्ठभराक्रान्तः स शोकवान् ॥३१॥ दावाग्निसदृशास्तेन पद्मखण्डा निरीक्षिताः । वज्रसूचीसमास्तस्य बमवुश्चन्द्ररश्मयः ॥३१॥ विशालपुलिनाश्चास्य स्वच्छतोयाः समुद्रगाः। मनो वहन्ति चाकृष्टकन्याजघनसाम्यतः ॥३१२॥ मनोऽस्य केतकीसूची कुन्तयष्टिरिवामिनत् । चक्रवञ्च कदम्बानां पुष्पं सुरभि चिच्छिदे ॥३१३॥ कुटजानां विधूतानि कुसुमानि नमस्वता । मर्माणि चिच्छिदुस्तस्य मन्मथस्गेव सायकाः ।।३१४॥ इति चाचिन्तयल्लप्स्ये स्त्रीरत्नं यदि नाम तत् । ततः शोकमहं मातुरपनेष्याम्यसंशयम् ॥३१५॥ प्राप्तनेव ततो मन्ये पतित्वं भरतेऽखिले । आकृतिन हि सा तस्याः स्तोकभोगविधायिनी ॥३१६।। नदीकुलेष्वरण्येपु ग्रामेषु नगरेषु च । पर्वतेपु च चैत्यानि कारयिष्याम्यहं ततः ॥३१७॥
मातुः शोकेन संतप्तो मृतः स्यां यदि तामहम् । न पश्येयं धृतो जीवो मम तत्संगमाशया ॥३१८॥ ही पहुंच गयी थी ।।३०२-३०३।। वहाँ नागवतीकी पुत्री सुन्दर रूपसे सुशोभित हरिषेणको देखकर शरीरमें बेचैनी उत्पन्न करनेवाले कामदेवके बाणोंसे घायल हो गयी ॥३०४।। तदनन्तर पुत्रीको अन्यथा देख नागवतोने कहा कि हे पुत्री ! सावधान रह, तू महामुनिके वचन स्मरण कर ॥३०५।। सम्यग्ज्ञानरूपी चक्षुको धारण करनेवाले मुनिराजने पहले कहा था कि तू चक्रवर्तीका स्त्रीरत्न होगी ।।३०६॥ तपस्वियोंको जब मालूम हुआ कि नागवतीकी पुत्री हरिषेणसे बहुत अनुराग रखती है तो अपकीतिसे डरकर उन मूढ़ तपस्वियोंने हरिषेणको आश्रमसे निकाल दिया ।।३०७।। तब अपमानसे जला हरिषेण हृदयमें कन्याको धारण कर निरन्तर इधर-उधर घूमता रहा । ऐसा जान पड़ता था मानो वह भ्रामरी विद्यासे आलिंगित होकर ही निरन्तर घूमता रहता था ।।३०८|| उत्कण्ठाके भारसे दबा हरिषेण निरन्तर शोकग्रस्त रहता था। उसे न भोजनमें, न पुष्प और पल्लवोंसे निर्मित शय्यामें, न फलोंके भोजनमें, न सरोवरका जल पीनेमें, न गांवमें, न नगर में और न मनोहर निकुंजोंसे युक्त उपवन में धीरज प्राप्त होता था ॥३०९-३१०॥ कमलोंके समूहको वह दावानलके समान देखता था और चन्द्रमाकी किरणें उसे वज्रकी सुईके समान जान पड़ती थीं ॥३११।। विशाल तटोंसे सुशोभित एवं स्वच्छ जलको धारण करनेवाली नदियां इसके मनको इसलिए आकर्षित करती थी, क्योंकि उनके तट, इसके प्रति आकर्षित कन्याके नितम्बोंको समानता रखते थे ॥३१२|| केतकीकी अनी भालेके समान इसके मनको भेदती रहती थी और कदम्बवृक्षोंके सुगन्धित फूल चक्रके समान छेदते रहते थे ।।३१३।। वायुके मन्द-मन्द झोंकेसे हिलते हुए कुटज वृक्षोंके फूल कामदेवके बाणोंके समान उसके मर्मस्थल छेदते रहते थे ॥३१४।। हरिषेण ऐसा विचार करता रहता था कि यदि मैं उस स्त्रीरत्नको पा सका तो निःसन्देह माताका शोक दूर कर दूंगा ॥३१५।। यदि वह कन्या मिल गयी तो मैं यही समझंगा कि मुझे समस्त भरत क्षेत्रका स्वामित्व मिल गया है। क्योंकि उसकी जो आकृति है वह अल्पभोगोंको भोगनेवाली नहीं है ॥३१६|| यदि मैं उसे पा सका तो नदियोंके तटोंपर, वनोंमें, गाँवोंमें, नगरोंमें और पर्वतोंपर जिन-मन्दिर बनवाऊँगा ॥३१७।। यदि मैं उसे नहीं देखता तो माताके शोकसे सन्तप्त होकर १. नागमती म.। २. नद्यः । ३. पुष्पाणि च नभस्वता क. । ४. यदि चा-म.। ५. गतो क. ।
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