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पद्मपुराणे
नमः सिद्धेभ्य इत्युक्त्वा सुमाली तमथागदत् । नामूनि शतपत्राणि न चैते वत्स तोयदाः ॥ २७५॥ सितकेतुकृतच्छायाः सहस्राकारतोरणाः । शृङ्गेषु पर्वतस्यामी विराजन्ते जिनालयाः ॥ २७६॥ कारिता हरिषेणेन सज्जनेन महात्मना । एतान् वत्स नमस्य त्वं भव पूतमनाः क्षणात् ॥ २७७॥ ततस्तत्रस्थ एवासौ नमस्कृत्य जिनालयान् । उवाच विस्मयापन्नो धनदस्य विमर्दकः ॥२७८॥ आसोत्किं तस्य माहात्म्यं हरिषेणस्य कथ्यताम् । प्रतीक्ष्यतम येनासौ भवद्भिरिति कीर्तितः ॥ २७९॥ सुमाली न्यगदच्चैवं साधु पृष्टं दशानन । चरितं हरिषेणस्य शृणु पापविदारणम् ॥ २८० ॥ काम्पिल्यनगरे राजा नाम्ना मृगपतिध्वजः । बभूव यशसा व्याप्तसमस्तभुवनो महान् ॥२८१॥ महिषी तस्य प्रह्वा प्रमदागुणशालिनी । अभूत् सौभाग्यतः प्राप्ता पेनीशतलै लामताम् ॥२८२॥ हरिषेणः समुत्पन्नः स ताभ्यां परमोदयः । चतुःषष्ट्या शुभैर्युक्तो लक्षणैः क्षतदुष्कृतः ॥२८३॥ वप्रया चान्यदा जैने मते भ्रमयितुं रैथे । आष्टाह्निकमहानन्दे नगरे धर्मशीलया ॥ २८४ ॥ महालक्ष्मीरिति ख्याता सौभाग्यमदविह्वला । अवृत्तमवदत्तस्याः सपत्नी दुर्विचेष्टिता ॥ २८५॥ पूर्वं ब्रह्मरथो यातु मदीयः पुरवर्त्मनि । भ्रमिष्यति ततः पश्चादुमया कारितो रथः ॥ २८६॥ इति श्रुत्वा ततो वा कुलिशेनेव ताडिता । हृदये दुःखसंतप्ता प्रतिज्ञामकरोदिमाम् ॥२८७॥ भ्रमिष्यति रथोऽयं मे प्रथमं नगरे यदि । पूर्ववत्पुनराहारं करिष्येऽतोऽन्यथा तु न ॥२८८॥ इत्युक्त्वा च बबन्धासौ प्रतिज्ञालक्ष्मत्रेणिकाम् । व्यापाररहितावस्था शोकग्लानास्यपङ्कजा ॥ २८९ ॥
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हैं ? || २७४ || तब सुमालीने 'नमः सिद्धेभ्यः' कहकर दशाननसे कहा कि हे वत्स ! न तो ये कमल हैं और न मेघ ही हैं || २७५ ॥ किन्तु सफेद पताकाएँ जिनपर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकारके तोरण बने हुए हैं ऐसे ऐसे ये जिन-मन्दिर पर्वत के शिखरोंपर सुशोभित हो रहे हैं || २७६ ॥ ये सब मन्दिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्तीके द्वारा बनवाये हुए हैं । हे वत्स ! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षण-भर में अपने हृदयको पवित्र कर || २७७|| तदनन्तर वैश्रवणका मानमर्दन करनेवाले दशाननने वहीं खड़े रहकर जिनालयोंको नमस्कार किया और आश्चर्यचकित हो सुमालीसे पूछा कि पूज्यवर ! हरिषेणका ऐसा क्या माहात्म्य था कि जिससे आपने उनका इस तरह कथन किया है ? ।।२७८-२७९ ।। तब सुमालीने कहा कि हे दशानन ! तूने बहुत अच्छा प्रश्न किया । अब पापको नष्ट करनेवाला हरिषेणका चरित्र सुन || २८० ॥ काम्पिल्य नगर में अपने यशके द्वारा समस्त संसारको व्याप्त करनेवाला सिंहध्वज नामका एक बड़ा राजा रहता था || २८१ ।। उसकी वप्रा नामकी पटरानी थी जो स्त्रियों के योग्य गुणोंसे सुशोभित थी तथा अपने सौभाग्यके कारण सैकड़ों रानियों में आभूषणपनाको प्राप्त थी || २८२ ॥ उन दोनोंसे परम अभ्युदयको धारण करनेवाला हरिषेण नामका पुत्र हुआ। वह पुत्र उत्तमोत्तम चौंसठ लक्षणोंसे युक्त था तथा पापोंको नष्ट करनेवाला था || २८३॥ किसी एक समय आष्टाह्निक महोत्सव आया सो धर्मशील वत्रा रानीने नगर में जिनेन्द्र भगवान्का रथ निकलवाना चाहा || २८४|| राजा सिंहध्वजकी महालक्ष्मी नामक दूसरी रानी थी जो कि सौभाग्यके गर्वसे सदा विह्वल रहती थी । अनेक खोटी चेष्टाओंसे भरी महालक्ष्मी वप्राकी सौत थी इसलिए उसने उसके विरुद्ध आवाज उठायी कि पहले मेरा ब्रह्मरथ नगरको गलियों में घूमेगा। उसके पीछे वप्रा रानीके द्वारा बनवाया हुआ जैनरथ घूम सकेगा ||२८५ - २८६ ॥ यह सुनकर वप्राको इतना दुःख हुआ कि मानो उसके हृदयमें वज्रकी ही चोट लगी हो । दुःखसे सन्तप्त होकर उसने प्रतिज्ञा की कि यदि मेरा यह रथ नगर में पहले घूमेगा तो मैं पूर्व की तरह पुनः आहार करूँगी अन्यथा नहीं ||२८७-२८८ ।।
१. अतिशयेन पूज्य । २. पत्नी सा ललामताम् म. । ३. आभरणताम् । ४. चतुःषष्टिशुभे म., ख. । ५. रथम् म., वप्रया जैने रथे भ्रमयितुं मते इष्टे सतीत्यर्थः । ६, प्रतिज्ञां लक्ष्य म. ।
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