________________
१८६
पद्मपुराणे निमित्तमात्रतान्येषामसुखस्य सुखस्य वा । बुधास्तेभ्यो न कुप्यन्ति संसारस्थितिवेदिनः ॥२४॥ कल्याणमित्रतां यातः केकसीतनयो मम । गृहावासमहापाशाद्यनाहं मोचितोऽमतिः ॥२४९।। बान्धवो भानुकर्णोऽपि संवृत्तः सांप्रतं मम । संग्रामकारणं येन कृतं परमसंविदे ॥२५०।। इति संचिन्त्य जग्राह दीक्षां दैगम्बरीमसौ । आराध्य च तपः सम्यक क्रमाद्धाम परं गतः ।।२५१॥ प्रक्षाल्य दशवक्त्रोऽपि पराभवमलं कुले । सुखासिकामगादुव्यां बन्धुभिः शेखरीकृतः ॥२५२॥ अथ प्रवर्तितं तस्य मनोज्ञं धानदाधिपम् । प्रत्युप्तरत्नशिखरं वातायनविलोचनम् ॥२५३॥ मुक्ताजालप्रमुक्तेन समूहेनामलत्विषाम् । समुत्सृजदिवाजस्रमश्रु स्वामिवियोगतः ॥२५४॥ पद्मरागविनिर्माणमग्रदेशं दधच्छुचा । ताडनादिव संप्राप्त हृदयं रक्ततां पराम् ॥२५५॥ इन्द्रनीलप्रमाजालकृतप्रावरणं क्वचित् । शोकादिव परिप्राप्तं श्यामलत्वमुदारतः ॥२५६॥ चैत्यकाननबाधालीवाप्यन्तर्भवनादिभिः। सहितं नगराकारं नानाशस्त्रकृतक्षतम् ॥२५७॥ भृत्यैरुपाहृतं तुङ्गं सुरप्रासादसंनिभम् । विमानं पुष्पकं नाम विहायस्तलमण्डनम् ॥२५८॥ अरातिभङ्गचिह्वत्वादियेषेदं स मानवान् । अन्यथा तस्य किं नास्ति यानं विद्याविनिर्मितम् ॥२५९॥
सतं विमानमारुह्य सामात्यः सहवाहनः । सपौरः सात्मजः साध पितृभ्यां सहबन्धुभिः ॥२६॥ समस्त चेष्टा है ।।२४५|| दुःख अथवा सुखके दूसरे लोग निमित्त मात्र हैं, इसलिए संसारकी स्थितिके जाननेवाले विद्वान् उनसे कुपित नहीं होते हैं अर्थात् निमित्तके प्रति हर्ष-विषाद नहीं करते हैं ॥२४८।। वह दशानन मेरा कल्याणकारी मित्र है कि जिसने मुझ दुर्बुद्धिको गृहवासरूपी महाबन्धनसे मुक्त करा दिया ॥२४९।। भानुकर्ण भी इस समय मेरा परम हितैषी हआ है कि जिसके द्वारा किया हुआ संग्राम मेरे परम वैराग्यका कारण हुआ है ॥२५०।। इस प्रकार विचारकर उसने दैगम्बरी दीक्षा धारण कर ली और समीचीन तपकी आराधना कर परम धाम प्राप्त किया ॥२५१।।
___इधर दशानन भी अपने कुलके ऊपर जो पराभवरूपी मैल जमा हुआ था उसे धोकर पृथिवीमें सुखसे रहने लगा तथा समस्त बन्धुजनोंने उसे अपना शिरमौर माना ॥२५२।। अथानन्तर वैश्रवणका जो पुष्पक विमान था उसे रावणके भृत्यजन रावणके समीप ले आये । वह पुष्पक विमान अत्यन्त सुन्दर था, वैश्रवण उसका स्वामी था, उसके शिखरमें नाना प्रकारके रत्न जड़े हुए थे, झरोखे उसके नेत्र थे, उसमें जो मोतियोंकी झालर लगी थी उससे निर्मल कान्तिका समूह निकल रहा था और उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानो स्वामीका वियोग हो जानेके कारण निरन्तर आँसू ही छोड़ता रहता हो। उसका अग्रभाग पद्मराग मणियोंसे बना था इसलिए उसे धारण करता हुआ वह ऐसा जान पड़ता था मानो शोकके कारण उसने हृदयको बहुत कुछ पीटा था इसीलिए वह अत्यन्त लालिमाको धारण कर रहा था। कहीं-कहीं इन्द्रनील मणियोंकी प्रभा उसपर आवरण कर रही थी जिससे ऐसा जान पड़ता था मानो शोकके कारण ही वह अत्यन्त श्यामलताको प्राप्त हुआ हो । चैत्यालय, वन, मकानोंके अग्रभाग, वापिका तथा महल आदिसे सहित होनेके कारण वह किसी नगरके समान जान पड़ता था। नाना शस्त्रोंने उस विमानमें चोटें पहुँचायी थीं, वह बहुत ही ऊँचा था, देवभवनके समान जान पड़ता था और आकाशतलका मानो आभूषण ही था ॥२५३-२५८|| मानी दशाननने शत्रुकी पराजयका चिह्न समझ उस पुष्पक विमानको अपने पास रखनेकी इच्छा की थी अन्यथा उसके पास विद्यानिर्मित कौन-सा वाहन नहीं था ? ॥२५९॥ वह उस विमानपर आरूढ़ होकर मन्त्रियों, वाहनों, नागरिकजनों, पुत्रों, माता-पिताओं
१. दुर्वी क., ख. । २. अथापतितं म. । ३. परम् म. । ४. कृतं प्रावरणं म. । ५. गर्वयुक्तः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org