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अष्टमं पर्व
ऊर्ध्वं ततो दशास्यस्य शरान् वैश्रवणोऽमुचत् । करानिवावनेर्मूर्धिन मध्याह्ने योतिषां पतिः ||२३४|| चिच्छेद सायकान् तस्य ततो बाणैर्दशाननः । मण्डपं च घनं चक्रे क्षणमात्रादनाकुलः ॥ २३५ ॥ रन्धं वैश्रवणः प्राप्य शशाङ्कार्घेषुणा ततः । दशास्यस्याच्छितच्चापं चक्रे चैतं रथच्युतम् ॥ २३६ ॥ ततोऽन्यं रथमारुह्य वेगादम्मोदनिस्वनम् । तथासत्त्वो दशग्रीवो दुढौके पुष्पकान्तिकम् || २३७ ।। उल्काकारैस्ततस्तेन वज्रदण्डैर्घनेरितैः । कणशः कवचं कीर्णं धनदस्य महारुषा ॥ २३८ ॥ हृदये शुक्लमाऽथ मिण्डिमालेन वेगिना । जघान कैकसेयस्तं तथा मूर्च्छामितो यतः || २३९ || ततो जातो महाक्रन्दः सैन्ये वैश्रवणाश्रिते । तोषाच रक्षसां सैन्ये जातः कलकलो महान् ॥ २४०॥ ततो भृत्यैः समुद्धृत्य वीरशय्याप्रतिष्टितः । क्षिप्रं यक्षपुरं नीतो धनदो भृशदुःखितः || २४१ || दशास्योsपि जितं शत्रुं ज्ञात्वा निववृते रणात् । वीराणां शत्रुभङ्गेन कृतत्वं न धनादिना ॥ २४२ ॥ अथ प्रतिक्रिया चक्रे धनदस्य चिकित्सकैः । प्राप्तश्च पूर्ववदेहमिति चक्रे स चेतसि ||२४३ || द्रुमस्य पुष्पमुक्तस्य भग्नस्य वृषभस्य च । सरसश्चाप्यपद्मस्य वर्तेऽहं सदृशोऽधुना ॥ २४४ ॥ मानमुद्वहतः पुंसो जीवतः संसृतौ सुखम् । तच्च मे सांप्रतं नास्ति तस्मान्मुक्त्यर्थमार्येते || २४५|| एतदर्थं न वाञ्छन्ति सन्तो विषयजं सुखम् । यदेतदध्रुवं स्तोकं सान्तरायं सदुःखकम् ॥२४६ ।। नागः कस्यचिदप्य कर्मणामिदमोहितम् । समस्तं प्राणिजातस्य कृतानामन्यजन्मनि ॥२४७॥
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घाव नहीं लगता ऐसे शूर वीरोंका पराक्रम वृद्धिको प्राप्त नहीं होता ||२३३|| तदनन्तर मध्याह्नके समय जिस प्रकार सूर्यं अपनी किरणं पृथिवीके ऊपर छोड़ता है उसी प्रकार वैश्रवणने दशाननके ऊपर बाण छोड़े ||२३४|| तत्पश्चात् दशाननने अपने बाणोंसे उसके बाण छेद डाले और बिना किसी आकुलताके लगातार छोड़े हुए बाणोंसे उसके ऊपर मण्डप सा तान दिया || २३५|| तदनन्तर अवसर पाकर वैश्रवणने अर्धचन्द्र बाणसे दशाननका धनुष तोड़ डाला और उसे रथसे च्युत कर दिया || २३६ || तत्पश्चात् अद्भुत पराक्रमका धारी दशानन मेघके समान शब्द करनेवाले मेघनाद नामा दूसरे रथपर वेगसे चढ़कर वैश्रवणके समीप पहुँचा ||२३७|| वहाँ बहुत भारी क्रोधसे उसने जोर-जोर से चलाये हुए उल्काके समान आकारवाले वज्रदण्डोंसे वैश्रवण का कवच चूर-चूर कर डाला ||२३८|| और सफेद मालाको धारण करनेवाले उसके हृदयमें वेगशाली भिण्डिमालसे इतने जमकर प्रहार किया कि वह वहीं मूर्छित हो गया || २३९ || यह देख वैश्रवणकी सेनामें रुदनका महाशब्द होने लगा और राक्षसोंकी सेनामें हर्षके कारण बड़ा भारी कल-कल शब्द होने लगा || २४० || तब अतिशय दुःखी और वीरशय्यापर पड़े वैश्रवणको उसके भृत्यगण शीघ्र ही यक्षपुर ले गये || २४१ || रावण भी शत्रुको पराजित जान युद्ध से विमुख हो गया सो ठीक ही है क्योंकि वीर मनुष्यों का कृतकृत्यपना शत्रुओंके पराजयसे ही हो जाता है । धनादिकी प्राप्तिसे नहीं || २४२ ॥
अथानन्तर वैद्योंने वैश्रवणका उपचार किया सो वह पहले के समान स्वस्थ शरीरको प्राप्त हो गया । स्वस्थ होनेपर उसने मनमें विचार किया ||२४३ || कि इस समय मैं पुष्परहित वृक्ष, फूटे हुए घट अथवा कमलरहित सरोवर के समान हूँ || २४४ || जबतक मनुष्य मानको धारण करता है तभी तक संसार में जीवित रहते हुए उसे सुख होता है । इस समय मेरा वह मान नष्ट हो गया है इसलिए मुक्ति प्राप्त करनेके लिए प्रयत्न करता हूँ || २४५ || चूँकि यह विषयजन्य सुख अनित्य है, थोड़ा है, सान्तराय है और दुःखोंसे सहित है इसलिए सत्पुरुष उसकी चाह नहीं रखते ॥२४६|| इसमें किसीका अपराध नहीं है, यह तो प्राणियोंने अन्य जन्ममें जो कर्म कर रखे हैं उन्हींकी
१. घनेरितः म । २. मुक्तपुष्पस्य । ३. घटस्य । ४ आ समन्ताद् यत्नं करोमि । ५. नापराधः । ६. कस्यचिदप्यस्य म. ।
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