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अष्टमं पर्व
ततः श्वासान् विमुञ्चन्तीमश्रुबिन्दूननारतम् । हरिषेणः समालोक्य जननोमित्यवोचत ॥ २९०॥ मातः कस्मादिदं पूर्व स्वप्नेऽपि न निषेवितम् । त्वया रोदनमारब्धममङ्गलमलं वद ॥ २९१ ॥ तयोक्तं स ततः श्रुत्वा हेतुमेवं व्यचिन्तयत् । किं करोमि गुरोः पीडा प्राप्तेयं कथमोरिता ॥ २९२ ॥ पितायं जननी चैषा द्वावप्येतौ महागुरू । करोमि कं प्रतिद्वेषमहो मग्नोऽस्मि संकटे ॥ २९३॥ असमर्थस्ततो द्रष्टुं मातरं साश्रुलोचनाम् । निष्क्रम्य भवनाद्यातो वनं व्यालसमाकुलम् ॥२९४॥ तत्र मूलफलादीनि भक्षयन् विजने वने । सरस्सु च पिवन्नम्भो विजहार भयोज्झितः ॥ २९५ ॥ रूपमेतस्य तं दृष्ट्वा पशवोऽपि सुनिर्दयाः । क्षणेनोपशमं जग्मुर्भव्यः कस्य न संमतः ॥ २९६ ॥ तत्रापि स्मर्यमाणं तत्कृतं मात्रा प्ररोदनम् । 'ववाधे तं प्रलापश्च कृतो गद्गदकण्ठया ॥२९७॥ रम्येष्वपि प्रदेशेषु वने तत्रास्य नो धृतिः । बभूव कुर्वतो नित्यं भ्रमणं मृदुचेतसा ॥२९८॥ वनदेव इति भ्रान्ति कुर्वाणोऽसावनारतम् । दूरविस्तारिताक्षीभिर्मृगीमिः कृतवीक्षणः ॥ २९९॥ "समियायाङ्गिरः शिष्यशतमन्युवनाश्रमम् । विरोधं दूरमुज्झित्वा वनप्राणिभिराश्रितम् ॥३००॥ चम्पायामथ रुद्धायां कालकल्पाख्यभूभृता । रुद्रेण साधनं भूरि बिभ्रता पुरुतेजसा ॥३०१॥ यावत्तेन समं युद्धं चकार जनमेजयः । पूर्वं रचितया तावत्सुदूरगसुरङ्गया ॥ ३०२ ॥
यह कहकर उसने प्रतिज्ञाके चिह्नस्वरूप वेणी बाँध ली और सब काम छोड़ दिया । उसका मुखकमल शोकसे मुरझा गया, वह निरन्तर मुखसे श्वास और नेत्रोंसे आँसू छोड़ रही थी । माताकी ऐसी दशा देख हरिषेणने कहा कि हे मातः ! जिसका पहले कभी स्वप्न में भी तुमने सेवन नहीं किया वह अमांगलिक रुदन तुमने क्यों प्रारम्भ किया ? अब बस करो और रुदनका कारण कहो || २८९ - २९१ ।। तदनन्तर माताका कहा कारण सुनकर हरिषेणने इस प्रकार विचार किया कि अहो ! मैं क्या करूँ ? यह बहुत भारी पीड़ा प्राप्त हुई है सो पितासे इसे कैसे कहूँ ? || २९२ || वह पिता हैं और यह माता हैं । दोनों ही मेरे लिए परम गुरु हैं। मैं किसके प्रति द्वेष करूँ ? आश्चर्य है कि मैं बड़े संकट में आ पड़ा हूँ || २९३ || कुछ भी हो पर मैं रुदन करती माताको देखने में असमर्थ हूँ। ऐसा विचारकर वह महलसे निकल पड़ा और हिंसक जन्तुओंसे भरे हुए वनमें चला गया || २९४ || वहाँ वह निर्जन वनमें मूल, फल आदि खाता और सरोवर में पानी पीता हुआ निर्भय हो घूमने लगा ॥ २९५ ॥ हरिषेणका ऐसा रूप था कि उसे देखकर दुष्ट पशु भी क्षण-भर में उपशम भावको प्राप्त हो जाते थे सो ठीक ही है क्योंकि भव्य जीव किसे नहीं प्रिय होता है ? || २९६ || निर्जन वनमें भी जब हरिषेणको माताके द्वारा किये हुए रुदनकी याद आती थी तब वह अत्यन्त दुःखी हो उठता था । माताने गद्गद कण्ठसे जो भी प्रलाप किया वह सब स्मरण आनेपर उसे बहुत कुछ बाधा पहुँचा रहा था || २९७|| कोमल चित्तसे निरन्तर भ्रमण करनेवाले हरिषेणको बनके भीतर एक-से-एक बढ़कर मनोहर स्थान मिलते थे पर उनमें उसे धैयं प्राप्त नहीं होता था || २९८ || क्या यह वनदेव है ? इस प्रकारकी भ्रान्ति वह निरन्तर करता रहता था और हरिणियाँ उसे दूर तक आँख फाड़-फाड़कर देखती रहती थीं ||२९९ || इस प्रकार घूमता हुआ हरिषेण, जहाँ वनमें प्राणी परस्परका वैरभाव दूर छोड़कर शान्तिसे रहते थे ऐसे अंगिरस ऋषिके शिष्य शतमन्युके आश्रम में पहुँचा ||३०० ||
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अथानन्तर एक कालकल्प नामका राजा था जो महाभयंकर, महाप्रतापी और बहुत बड़ी सेनाको धारण करनेवाला था सो उसने चारों ओरसे चम्पा नगरीको घेर लिया || ३०१ || चम्पाका राजा जनमेजय जबतक उसके साथ युद्ध करता है तबतक पहलेसे बनवायी हुई लम्बो सुरंगसे माता नागवती अपनी पुत्रीके साथ निकलकर शतमन्यु ऋषिके उस आश्रम में पहलेसे
१. ववाधतं म. क. । २. स इयाय म ।
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