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अष्टम पर्व
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उत्तिष्ठ शरणं गच्छ कंचिन्नाथ प्रसीद नः । उत्पत्य गगनं क्षिप्रं रक्ष प्राणान् सुदुर्लभान् ॥१२३॥ अस्मिन् वा भवने जैने भूत्वा प्रच्छन्न विग्रहः । तिष्ठ यावदिमे करा नेक्षन्ते भवतस्तनुम् ॥१२४॥ श्रुत्वा वाक्यमिदं दीनं दृष्ट्वा च निकटं बलम् । सिते कुमुदवत्तेन नेत्रे पद्मनिभे कृते ॥१२५॥ उवाच च न मां नूनं विच्छयद्वदथेदशम् । किमेमिः क्रियते काकैः संभयापि गरुत्मतः ॥१२६॥ एकाकी पृथुकः सिंहः प्रस्फुरत्सितकेसरः । किं वा नानयते ध्वंसं यूथं समददन्तिनाम् ॥१२७॥ इदं ताः पुनरूचुस्तं यद्येवं नाथ मन्यसे । ततोऽस्माकं पितृन रक्ष भ्रातश्च स्वजनांस्तथा ॥१२८॥ एवमस्तु प्रिया यूयं मा भैष्टति स सान्त्वनम् । कुरुते यावदेतासां तावबलमुपागतम् ॥१२९॥ ततो विमानमारुह्य क्षणाद्विद्याविनिर्मितम् । खमारुह्य दशग्रीवो दन्तदष्टरदच्छदः ॥१३॥ त एवावयवास्तस्य प्राप्य युद्धमहोत्सवम् । दुःखेन मानमाकाशे प्राप्ता रोमाञ्चकर्कशाः ॥५३१॥ तस्योपरि ततो योधाश्चिक्षिपुः शस्त्रसंहतीः। धारा इव घनस्थूलाः पर्वतस्य घनाघनाः ॥१३२॥ ततोऽसौ शस्त्रसंघातं कामिश्चिद् विन्यवारयत् । कामिश्चित्त रिपुवातं शिलाभिर्भयमानयत् ॥१३३॥ वराकैनिहतैरेमिः खेचरैः किं ममेत्यसौ । चिन्तयित्वा प्रधानांस्त्रीन् तांश्चक्रे नेत्रगोचरम् ।।१३४।। तामसेन ततोऽस्त्रेण मोहयित्वा गतक्रियाः । नागपाशेस्त्रयोऽप्येते बद्ध वा तासामुपाहृताः ।।१३५॥ मोचितास्ते ततस्ताभिः पूजां च परिलम्भिताः । शूरस्वजनसंप्राप्त संमदं च समागताः ।।१३६।।
हे नाथ ! उठो और किसीकी शरणमें जाओ। हम लोगोंपर प्रसन्न होओ और शीघ्र ही आकाशमें उड़कर अपने दुर्लभ प्राणोंकी रक्षा करो ॥१२३।। अथवा ये क्रूरपुरुष जबतक आपका शरीर नहीं देख लेते हैं उसके पहले ही इस जिन-मन्दिरमें छिपकर बैठ रहो ।।१२४।। कन्याओंके यह दोन वचन सुनकर तथा सेनाको निकट देख दशाननने अपने कुमुदके समान सफेद नेत्र कमलके समान लाल कर लिये ॥१२५॥ उसने कन्याओंसे कहा कि निश्चय ही आप हमारा पराक्रम नहीं जानती हो इसलिए ऐसा कह रही हों। जरा सोचो तो सही, बहुत-से कौए एक साथ मिलकर भी गरुड़का क्या कर सकते हैं ? ॥१२६॥ जिसकी सफेद जटाएँ फहरा रही हैं ऐसा अकेला सिंहका बालक क्या मदोन्मत्त हाथियोंके झुण्डको नष्ट नहीं कर देता? ॥१२७|| दशाननके वीरता भरे वचन सुन उन कन्याओंने फिर कहा कि हे नाथ ! यदि आप ऐसा मानते हैं तो हमारे पिता, भाई तथा कुटुम्बीजनों की रक्षा कीजिए, अर्थात् युद्ध में उन्हें नहीं मारिए ॥१२८|| 'हे प्रिया जनो! ऐसा ही होगा, तुम सब भयभीत न होओ' इस प्रकार दशानन जबतक उन कन्याओंको सान्त्वना देता है कि तबतक वह सेना आ पहँची ॥१२९|| तदनन्तर। विद्या निर्मित विमानपर आरूढ़ होकर रावण आकाशमें जा पहुँचा और दाँतोंसे ओठ चबाने लगा ॥१३०॥ दशाननके वे ही सब अवयव थे पर युद्धरूपी महोत्सवको पाकर इतने अधिक फूल गये और रोमांचोंसे कर्कश हो गये कि आकाशमें बड़ी कठिनाईसे समा सके ।।१३१।। तदनन्तर जिस प्रकार मेघ किसी पर्वतपर बड़ी मोटी जलकी धाराएँ छोड़ते हैं उसी प्रकार सब योधा दशाननके ऊपर शस्त्रोंके समूह छोड़ने लगे ॥१३२।। तब दशाननने शिलाएँ वर्षाना शुरू किया। उसने कितनी ही शिलाओंसे तो शत्रओंके शस्त्रसमहको रोका और कितनी हो शिलाओंसे शत्रसमूहको भयभीत किया ॥१३३।। इन बेचारे दीन-हीन विद्याधरोंको मारनेसे मुझे क्या लाभ है ? ऐसा विचारकर उसने सुरसुन्दर, कनक और बुध इन तीन प्रधान विद्याधरोंको अपनी दृष्टिका विषय बनाया अर्थात् उनकी ओर देखा ॥१३४॥ तदनन्तर उसने तामस शस्त्रसे मोहित कर उन्हें निश्चेष्ट बना दिया और नागपाशमें बाँधकर तीनोंको तीन कन्याओंके सामने रख दिया ।।१३५।। तब १. कं च म.। २. तते म.। ३. संमद-म.। ४. खचरैः म.। सेवकैः क.। ५. प्रधानां स्त्री तां चके नेत्रगोचराम् म.(?) । त्रीन् प्रधानान् मत्वा तान् दृष्टिपथमानिनायेत्यर्थः । ६. संप्राप्ते म. ।
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