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अष्टमं पर्व
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प्रतीकाग्राहवच्चास्य प्रस्फुरत्स्वेदमोचिनः । चक्षुषात्यन्तरक्तेन दिग्धं सकलमम्बरम् ॥१७९॥ ततो वधिरयन्नाशाः स्वरेणाम्बरगामिना । करिणो निर्मदीकुर्वन् बभाण प्रतिनादिना ॥ १८० ॥ कोऽसौ वैश्रवणो नाम को वेन्द्रः परिभाष्यते । अस्मद्गोत्रक्रमायाता नगरी येन गृह्यते ॥ १८१ ॥ सोऽयं श्येनायते काकः शृगालः शरभायते । इन्द्रायते स्वभृत्यानां निस्त्रपः पुरुषाधमः ॥ १८२॥ आः कुदूत पुरोऽस्माकं गदतः परुषं वचः । निःशङ्कस्य शिरस्तावत् पातयामि रुषे वलिम् ॥१८३॥ इत्युक्त्वा 'कोशतः खड्गमाचकर्ष कृतं वियत् । इन्दीवरवनेनेव येन व्याप्तं महासरः ॥ १८४॥ कुर्वाणं क्वणनं वाताद्रोषादिव सकम्पनम् । नीतं कालमिवासित्वं हिंसाया इव शावकम् ॥ १८५ ॥ उद्गूर्णश्चायमेतेन वेगादागत्य चान्तरम् । विभीषणेन संरुद्धः सान्त्वितश्चेति सादरम् ॥१८६॥ भृत्यस्यास्यापराधः कः क्लीबस्यापहतात्मनः । विक्रीतनिजदेहस्य शुकस्येवानुभाषिणः ॥ १८७॥ हृदयस्थेन नाथेन पिशाचेनेव चोदिताः । दूता वाचि प्रवर्तन्ते येन्त्रदेहा इवावशाः ॥ ३८८ ॥ तत्प्रसीद दयामार्य कुरु प्राणिनि दुःखिते । अकीर्तिरुद्रवत्युर्वीलोके क्षुद्रवधे कृते ॥ १८९ ॥ शिरस्सु विद्विषामेव तव खड्गः पतिष्यति । न हि गण्डूपदान् हन्तुं वैनतेयः प्रवर्तते ॥ १९० ॥ एवं कोपानलस्तस्य यावत्सद्वाक्यवारिणा । शममानीयते तेन साधुना न्यायवादिना ॥१९१॥
हुआ था ऐसा दशाननरूपी महासागर परम क्षोभको प्राप्त हुआ || १७८ ॥ दूतके वचन सुनते ही दशाननकी ऐसी दशा हो गयी मानो किसीने उसके अंग पकड़कर झकझोर दिया हो, उसके प्रत्येक अंगसे पसीना छूटने लगा और उसकी अत्यन्त लाल दृष्टिने समस्त आकाशको लिप्त कर दिया १)१७९|| तदनन्तर आकाशमें गूँजनेवाले स्वरसे दिशाओंको बहरा करता हुआ दशानन, प्रतिध्वनिसे हाथियों को मदरहित करता हुआ बोला ॥ १८०॥ कि यह वैश्रवण कौन है ? अथवा इन्द्र कौन कहलाता है ? जो कि हमारी वंश-परम्परासे चली आयी नगरीपर अधिकार किये बैठा है ? ||१८१|| निर्लज्ज नीचपुरुष अपने भृत्योंके सामने इन्द्र जैसा आचरण करता है सो मानो कौआ बाज बन रहा है और शृगाल अष्टापदके समान आचरण कर रहा है ।। १८२ ॥ अरे कुदूत ! हमारे सामने निःशंक होकर कठोर वचन बोल रहा है सो मैं अभी क्रोधके लिए तेरे मस्तककी बलि चढ़ाता हूँ || १८३ ॥ | यह कहकर उसने म्यानसे तलवार खींची जिससे आकाशरूपी सरोवर ऐसा दिखने लगा मनो नीलकमलरूपी वनसे ही व्याप्त हो गया हो ॥ १८४ ॥ दशाननकी वह तलवार हवासे बात कर रही थी, क्रोधसे मानो काँप रही थी, ऐसी जान पड़ती थी मानो तलवारका रूप धरकर यमराज ही वहाँ आया हो, अथवा मानो हिंसाका बेटा ही हो || १८५|| दशाननने वह तलवार ऊपरको उठायी ही थी कि विभीषणने बीचमें आकर रोक दिया और बड़े आदर से इस प्रकार समझाया कि ॥। १८६ || जिसने अपना शरीर बेच दिया है और जो तोते के समान कही बातको ही दुहराता हो ऐसे इस पापी दीन-हीन भृत्यका अपराध क्या है ? || १८७ || दूत जो कुछ वचन बोलते हैं सो पिशाच की तरह हृदयमें विद्यमान अपने स्वामीसे प्रेरणा पाकर ही बोलते हैं । यथार्थ - मेंदूत यन्त्रमयी पुरुष समान पराधीन है ॥ १८८ || इसलिए हे आर्य ! प्रसन्न होओ और दु:खी प्राणी पर दया करो । क्षुद्रका वध करनेसे संसारमें अकीर्ति ही फैलती है ॥ १८९ ॥ आपकी तलवार तो शत्रुओंके ही सिर पर पड़ेगी क्योंकि गरुड़ जलमें रहनेवाले निर्विष साँपोंको मारनेके लिए प्रवृत्त नहीं होता || १९० || इस प्रकार न्याय-नीतिको जाननेवाले सत्पुरुष विभीषण, सदुपदेशरूपी जलसे जबतक दशाननकी क्रोधाग्निको शान्त करता है तबतक अन्य लोगोंने उस दूतके पैर खींचकर उसे सभाभवन से शीघ्र ही बाहर निकाल दिया । आचार्य कहते हैं कि दुःखके लिए
१. करभायते म. । २. नीत म. ३ - मिवासन्नं म । ४. यत्र म. ।
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