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पद्मपुराणे दशग्रीवेण साध ताः पुनः क्रीडा प्रचक्रिरे । अन्योन्याहंयुतां प्राप्य प्रथमोपगमाकुलाः ॥१०९।। संप्रत्येव हि सा क्रीडा क्रियते तेन या समम् । शशाङ्केन विमुक्तानां ताराणां कामिरूपता ॥११०॥ ततः कन्चुकिभिस्तासामाशु गत्वा निवेदितम् । जनकेभ्य इदं वृत्तं रत्नश्रवससंभवम् ॥११॥ ततस्तेः प्रहिताः क्रूराः पुरुषास्तद्विनाशने । संदष्टौष्टपुटा बद्धभ्रकुटीकोटिसंकटाः ॥११२॥ विविधानि विमुञ्चन्तस्ते शस्त्राणि समं ततः । भ्रक्षेपमात्रकेणैव कैकसेयेन निर्जिताः ॥११३॥ भयवेपितसर्वाङ्गास्ततस्तेऽमरसुन्दरम् । व्यज्ञापयन् समागस्य शस्त्रनिर्मुक्तपाणयः ॥११४॥ गृहाण जीवनं नाथ हर वा नः कुलाङ्गनाः । छिन्धि ता चरणी पाणी ग्रीवां वान वयं क्षमाः ।।११५॥ कन्यानिवहमध्यस्थः कोऽपि धीरो विराजते । सरेन्द्रसुन्दरः कान्त्या समानो रजनीपतेः ॥११॥ क्रद्धस्य तस्य नो दष्टि देवाः शक्रपुरस्सराः । सहेरन् किमुत क्षुद्रा अस्पत्तल्याः शरीरिणः ॥११७।। रथनपुरनाथेन्द्रप्रभृत्युत्तममानवाः। वीक्षिता बहवोऽस्माभिरयं तु परमादतः ॥११॥ एवं श्रुत्वा महाक्रोधरक्तास्योऽमरसुन्दरः । निरैत् संना संयुक्तो बुधेन कनकेन च ॥११९॥ अन्ये च बहवः शूराः पतयो व्योमगामिनाम् । निश्चक्रमुर्वियद्दीप्तं कुर्वाणाः शस्त्ररश्मिभिः ॥१२॥ ततस्तानायतो दृष्टा ता भयाकुलमानसाः । विद्याधरसुता ऊचुरिदं रत्नश्रवःसुतम् ॥१२१।। अस्मत्प्रयोजनानाथ प्राप्तोऽस्यत्यन्तसंशयम् । पुण्यहीना वयं कष्टं सर्वा अप्यपलक्षणाः ॥१२२॥
गन्धर्व विधिसे उस प्रकार विवाह लिया कि जिस प्रकार चन्द्रमा ताराओंके समूहको विवाह लेता है ।।१०८॥
तदनन्तर 'मैं पहले पहुँचूँ, मैं पहले पहुँचूँ' इस प्रकार परस्परमें होड़ लगाकर वे कन्याएँ दशाननके साथ पुनः क्रीडा करने लगीं ॥१०९॥ जो कन्या दशाननके साथ क्रीड़ा करती थी वही भली मालूम होती थी सो ठीक ही है क्योंकि चन्द्रमासे रहित ताराओंकी क्या शोभा है ? ॥११०॥ तदनन्तर जो कंचुकी इन कन्याओंके साथ वापिकापर आये थे उन्होंने शीघ्र ही जाकर कन्याओंके पितासे दशाननका यह वृत्तान्त कह सुनाया॥१११॥ तब कन्याओंके पिताने दशाननको नष्ट करनेके लिए ऐसे क्रूर पुरुष भेजे कि जो क्रोधवश ओठोंको डंस रहे थे तथा बद्ध भौंहोंके अग्रभागसे भयानक मालूम होते थे ॥११२॥ वे सब एक ही साथ अनेक प्रकारके शस्त्र चला रहे थे पर दशाननने उन्हें भौंह उठाते ही जीत लिया ॥११३।। तदनन्तर जिनका सारा शरीर भयसे कांप रहा था तथा जिनके हाथसे शस्त्र छूट गये थे ऐसे वे सब पुरुष राजा सुरसुन्दरके पास जाकर कहने लगे ॥११४॥ कि हे नाथ ! चाहे हमारा जीवन हर लो, चाहे हमारे हाथ-पैर तथा गरदन काट लो पर हम उस पुरुषको नष्ट करनेमें समर्थ नहीं हैं ।।११५।। इन्द्रके समान सुन्दर तथा कान्तिसे चन्द्रमाकी तुलना करनेवाला कोई एक धीर-वीर मनुष्य कन्याओंके बीचमें बैठा हुआ सुशोभित हो रहा है ॥११६।। सो जब वह क्रुद्ध होता है तब उसकी दृष्टिको इन्द्र आदि देव भी सहन नहीं कर सकते फिर हमारे जैसे क्षुद्र प्राणियोंकी तो बात ही क्या है ? ॥११७।। रथनूपुर नगरके राजा इन्द्र आदि बहुत-से उत्तम पुरुष हमने देखे हैं पर यह उन सबमें परम आदरको प्राप्त है ॥११८॥
यह सुनकर, बहुत भारी क्रोधसे जिसका मुंह लाल हो रहा था ऐसा राजा सुरसुन्दर राजा कनक और बुधके साथ तैयार होकर बाहर निकला ॥११९॥ इनके सिवाय और भी बहुत-से शूरवीर विद्याधरोंके अधिपति शस्त्रोंकी किरणोंसे आकाशको देदीप्यमान करते हुए बाहर निकले ॥१२०॥ तदनन्तर उन्हें आता देख, जिनका मन भयसे व्याकुल हो रहा था ऐसी वे विद्याधर कन्याएँ दशाननसे बोली कि हे नाथ ! आप हमारे निमित्तसे अत्यन्त संशयको प्राप्त हुए हैं। यथार्थमें हम सब पुण्यहीन तथा शुभलक्षणोंसे रहित हैं ॥१२१-१२२॥
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