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अष्टम पर्व
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तत्र क्रीडाप्रसक्तानां दधतीनां परां श्रियम् । षट् सहस्राणि कन्यानामपश्यत् केकसीसुतः ॥९५॥ काश्चिच्छीकरजालेन रेमिरे दूरगामिना । 'पर्यटन्ति स्म सत्कन्या दूरं सख्या कृतागसः ॥९६॥ प्रदय रदनं काचित्पद्मपण्डे सशैवले । कुर्वन्ती पङ्कजाशङ्का सखीनां सुचिरं स्थिता ॥९७॥ मृदङ्गनिस्वनं काचिच्चक्रे करतलाहतम् । कुर्वाणा सलिलं मन्दं गायन्ती षट्पदैः समम् ॥१८॥ ततस्ता युगपद् दृष्टा कन्या रत्नश्रवःसुतम् । क्षणं त्यक्तजलक्रीडा बभूवुः स्तम्भिता इव ॥१९॥ मध्यं तासां दशग्रीवो गतो रमणकाङ्क्षया । रन्तुमेतेन साकं ता व्यापारिण्योऽभवन् मुदा ॥१०॥ आहताश्च समं सर्वा विशिखैः पुष्पधन्वनः । दृष्टिरासामभूदस्मिन् बढेवानन्यचारिणी ॥१०१॥ मिश्रे कामरसे तासां पया पूर्वसंगमात् । मनो दोलामिवारूढं बभूवास्यन्तमाकुलम् ॥१०॥ सुरसुन्दरतो जाता नाम्ना पद्मवती शुभा। सर्वश्रीयोषिति स्फीतनीलोत्पलदलेक्षणा ॥१०॥ कन्याऽशोकलता नाम बुधस्य दुहिता वरा । मनोवेगा समुत्पन्ना नवाशोकलतासमा ॥१०॥ संध्यायां कनकाजाता नाम्ना विद्युत्प्रमा परा । विद्युतं प्रभया लजां या नयेच्चारुदर्शना ॥१०५॥ महाकुलसमुद्भूता ज्येष्ठास्तासामिमाः श्रिया । विभूत्या च त्रिलोकस्य मूर्ताः सुन्दरता इव ॥१०६॥ आकल्पकं च संप्राप्तास्तं ययुस्ताः सहेतराः । स तापत्रपा तावद् दुःसहाः स्मरवेदनाः ।।१०७॥
गान्धर्वविधिना सर्वा निराशङ्केन तेन ताः । परिणीताः शशाङ्केन ताराणामिव संहतिः ॥१०॥ पड़ती थी मानो भौंहें ही चला रही हो तथा पक्षियोंके मधुर शब्दसे ऐसी मालूम होती थी मानो वार्तालाप ही कर रही हो ॥९४॥ उस वापिकापर परम शोभाको धारण करनेवाली छह हजार कन्याएँ क्रीडामें लीन थीं सो दशाननने उन सबको देखा ॥९५।। उनमें से कछ कन्याएँ तो टर तक उड़नेवाले जलके फव्वारेसे क्रीड़ा कर रही थीं और कुछ अपराध करनेवाली सखियोंसे दूर हटकर अकेली-अकेली ही घूम रही थीं ॥१६॥ कोई एक कन्या शेवालसे सहित कमलोंके समूहमें बैठकर दाँत दिखा रही थी और उसकी सखियोंके लिए कमलकी आशंका उत्पन्न कर रही थी॥९७॥ कोई एक कन्या पानीको हथेलीपर रख दूसरे हाथकी हथेलीसे उसे पीट रही थी और उससे मृदंग जैसा शब्द निकल रहा था। इसके सिवाय कोई एक कन्या भ्रमरोंके समान गाना गा रही थी। तदनन्तर वे सबकी सब कन्याएँ एक साथ दशाननको देखकर जलक्रीड़ा भूल गयों और आश्चर्यसे चकित रह गयीं ॥९८-९९|| दशानन क्रीड़ा करनेकी इच्छासे उनके बीच में चला गया तथा वे कन्याएँ भी उसके साथ क्रीड़ा करनेके लिए बड़े हर्षसे तैयार हो गयीं ॥१०॥ क्रीड़ा करते-करते ही वे सब कन्याएँ एक साथ कामके बाणोंसे आहत (घायल ) हो गयीं और दशाननपर उनकी दृष्टि ऐसी बंधी कि वह फिर अन्यत्र संचार नहीं कर सकी ।।१०१।। उस अपूर्व समागमके कारण उन कन्याओंका कामरूपी रस लज्जासे मिश्रित हो रहा था अतः उनका मन दोलापर आरूढ़ हुए के समान अत्यन्त आकुल हो रहा था ॥१०२॥ अब उन कन्याओंमें जो मुख्य हैं उनके नाम सुनो। राजा सुरसुन्दरसे सर्वश्री नामकी स्त्रीमें उत्पन्न हुई पद्मावती नामकी शुभ कन्या थी। उसके नेत्र किसी बड़े नीलकमलकी कलिकाके समान थे ॥१०३॥ राजा बुधकी मनोवेगा रानीसे उत्पन्न अशोकलता नामकी कन्या थी जो नूतन अशोकलताके समान थी॥१०४॥ राजा कनकसे संख्या नामक रानीसे उत्पन्न हुई विद्युत्प्रभा नामकी श्रेष्ठ कन्या थी जो इतनी सुन्दरी थी कि अपनी प्रभासे बिजलीको भी लज्जा प्राप्त करा रही थी ॥१०५।। ये कन्याएँ महाकुलमें उत्पन्न हुई थी और शोभासे उन सबमें श्रेष्ठ थीं। विभूतिसे तो ऐसी जान पड़ती थीं मानो तीनों लोककी सुन्दरता ही रूप धरकर इकट्ठी हुई हो ॥१०६।। उक्त तीनों कन्याएँ अन्य समस्त कन्याओंके साथ दशाननके समीप आयीं सो ठीक ही है क्योंकि लज्जा तभी तक सही जाती है जब तक कि कामको वेदना असह्य न हो उठे ॥१०७।। तदनन्तर किसी प्रकारको शंकासे रहित दशाननने उन सब कन्याओंको १. पलायन्ते स्म म. । २. पुनः म. । ३. समुत्पन्ना ख. । ४. संहती: म., ख. ।
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