________________
अष्टमं पर्व
१७३
अङ्गानाविषयां सृष्टि मपूर्वामिव कर्मणा । आहृत्य जगतोऽशेषं लावण्यमिव निर्मिताम् ॥६॥ दिवाकरकरस्पर्शस्वर्भानुग्रहभीतितः । तारापतिं परित्यज्य क्षितिं कान्तिमिवागताम् ॥६९।। सीमन्तमणिभाजालरचितास्यावगुण्ठनाम् । हारेण वक्त्रलावण्यसेतुनेव विभूषिताम् ॥७॥ कर्णयोर्बालिकालोकान्मुक्ताफलसमुत्थिता । सितस्य सिन्दुवारस्य मञ्जरीमिव बिभ्रतीम् ॥७॥ कन्दर्पदर्पसंक्षोभं सहते जघनं न यत् । इतीव वेष्टितं काञ्च्या मणिचक्रककान्तया ॥७२॥ मनोज्ञामपि तां दृष्ट्वा दुःखितोऽभूत् स चिन्तया । नीयन्ते विषयैः प्रायः सत्ववन्तोऽपि वश्यताम् ॥७३॥ तस्यां माधुर्ययुक्तायां दृष्टिस्तस्य गता सती । अभवन्मधुमत्तेव प्रत्यानीतापि धूर्णिता ॥७॥ अचिन्तयत्तदा नाम स्यादियं वनितोत्तमा । हीः श्रीलक्ष्मीर्धतिः कीर्तिः प्राप्तमूर्तिः सरस्वती ॥७५॥ किमूढेयमुतानूढा माया वा केनचित्कृता । अहो सृष्टिरियं मूर्ध्नि स्थिता निखिलयोषिताम् ॥७६॥ प्राप्नुयाद् यदि मामैतां कन्यामिन्द्रियहारिणीम् । कृतार्थ नस्ततो जन्म जायते तृणमन्यथा ॥७७॥ चिन्तयन्त मिमं चैवं मयोऽभिप्रायकोविदः । उपनीय सुतामाह प्रभुरस्या भवानिति ॥७८॥ तेन वाक्येन सिक्तोऽसावमृतेनेव तत्क्षणात् । तोषस्येवाकरान् जातान् दधे रोमाञ्चकण्टकान् ॥७९॥ ततोऽनयोः क्षणोद्भुतसर्ववस्तुसमागमम् । स्वजनानन्दितं वृत्तं पाणिग्रहणमङ्गलम् ॥८॥
समं तया ततो यातः स्वयंप्रभपुरं कृती । मन्यमानः श्रियं प्राप्तां समस्तभुवनाश्रिताम् ॥८१॥ कर्मरूपी विधाताने संसारके समस्त सौन्दर्यको इकट्ठा कर उसके बहाने स्त्रीविषयक अपूर्व सृष्टि ही मानो रची थी ॥६८॥ वह सूर्यको किरणोंका स्पर्श तथा राहुग्रहके आक्रमणके भयसे चन्द्रमाको छोड़कर पृथ्वीपर आयी हुई कान्तिके समान जान पड़ती थी ॥६९॥ उसने अपने सीमन्त ( माँग ) में जो मणि पहन रखा था उसकी कान्तिका समूह उसके मुखपर घूघटका काम देता था। वह जिस हारसे सुशोभित थी वह मुखके सौन्दर्यके प्रवाहके समान जान पड़ता था ॥७०।। उसने अपने कानोंमें मोतीजड़ित बालियाँ पहन रखी थीं सो उनकी प्रभासे ऐसी जान पड़ती थी मानो सफेद सिन्दुवार (निर्गुण्डी) की मंजरी ही धारण कर रही हो ॥७१॥ चूंकि जघनस्थल कामके दर्पजन्य क्षोभको सहन नहीं करता था इसलिए ही मानो उसे मणिसमूहसे सुशोभित कटिसूत्रसे वेष्टित कर रखा था ॥७२॥ वह मन्दोदरी अत्यन्त सुन्दर थी फिर भी दशानन उसे देख चिन्तासे दुःखी हो गया सो ठीक ही है क्योंकि धैर्यवान् मनुष्य भी प्रायः विषयोंके अधीन हो जाते हैं ।।७३॥ मन्दोदरी माधुर्यसे युक्त थी इसलिए उसपर पड़ी दशाननकी दृष्टि स्वयं भी मानो मधुसे मत्त हो गयी थी, यही कारण था कि वह उसपर-से हटा लेनेपर भी नशामें झूमती थी ॥७४|| दशानन विचारने लगा कि यह उत्तम स्त्री कौन हो सकती है ? क्या ह्री, श्री, लक्ष्मी, धृति, कीर्ति अथवा सरस्वती है ? ॥७५॥ यह विवाहित है या अविवाहित ? अथवा किसीके द्वारा की हुई माया है ? अहो, यह तो समस्त स्त्रियोंकी शिरोधार्य सर्वश्रेष्ठ सृष्टि है ॥७६।। यदि मैं इन्द्रियोंको हरनेवाली इस कन्याको प्राप्त कर सकूँ तो मेरा जन्म कृतकृत्य हो जाये अन्यथा तृणके समान तुच्छ है ही ।।७७॥ इस प्रकार विचार करते हुए दशाननसे अभिप्रायके जाननेवाले मयने पुत्री मन्दोदरीको पास ले जाकर कहा कि इसके स्वामी आप हैं ।।७८॥ मयके इस वचनसे दशाननको इतना आनन्द हुआ मानो तत्क्षण अमृतसे ही सींचा गया हो। उसके सारे शरीरमें रोमांच उठ आये मानो सन्तोषके अंकुर ही उत्पन्न हुए हों ॥७९॥
तदनन्तर जहाँ क्षणभरमें ही समस्त वस्तुओंका समागम हो गया था और कुटुम्बीजन जहां आनन्दसे फूल रहे थे ऐसा इन दोनोंका पाणिग्रहण-मंगल सम्पन्न हुआ ॥८०॥ तदनन्तर दशानन कृतकृत्य होता हुआ मन्दोदरीके साथ स्वयंप्रभनगर गया। वह मन्दोदरीको पाकर ऐसा १. -मसर्वा म. । २. जगताशेष म.। ३. लोकां म.। ४. समुत्थिताम् म.। ५. मणिचक्राकान्तया ख.। ६. भुवनधिताम् म.।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org