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पद्मपुराणे
स्पृशँल्ललाटपट्टेन जानुभ्यां च महीतलम् । पावनौ स जिनेन्द्राणां ननाम चरणौ चिरम् ॥ ५५ ॥ ततो गेहाजिनेन्द्राणां निष्क्रान्तः परमोदयः । सेहितो दैत्यनाथेन निविष्टः सुखमासने ॥५६॥ विजयार्धगिरिस्थानां पृच्छन् वार्तां खगामिनाम् । चक्षुषो गोचरीभावं निन्ये मन्दोदरीमसौ ॥ ५७ ॥ चारुलक्षणसंपूर्णां सौभाग्यमणिभूमिकाम् । तनुस्निग्धनखोत्तुङ्गपृष्ठपादसरोरुहाम् ॥५८॥ रम्भास्तम्भसमानाभ्यां तूणाभ्यां पुष्पधन्वनः । लावण्याम्भः प्रवाहाभ्यामूरुभ्यामतिराजिताम् ॥५९ ॥ युक्तविस्तारमुत्तुङ्गं मन्मथास्थानमण्डपम् । नितम्वं दधतीमं प्रकुकुन्दर मनोहरम् ॥६०॥ वज्रमध्यामधोवक्त्रां हेमकुम्भनिभस्तनीम् । शिरीषसुमनोमालामृदु बाहुलतायुगाम् ॥ ६१ ॥ कम्बुरेखानतग्रीवां पूर्णचन्द्रसमाननाम् । नेत्रकान्तिनदी सेतुबन्धसंनिभनासिकाम् ॥ ६२ ॥ रक्तदन्तच्छदच्छायाच्छुरिताच्छकपोलकाम् । वीणाभ्रमरसोन्मादपरपुष्टसमस्वनाम् ॥६३॥ इन्दीवरारविन्दानां कुमुदानां च संहतीः । विमुञ्चन्तीमिवाशासु दृष्ट्या दूत्या मनोभुवः ॥ ६४ ॥ अष्टमीशर्वरीनाथसमानालिकपट्टिकाम् । संगतश्रवणां स्निग्धनीलसूक्ष्मशिरोरुहाम् ॥६५॥ शोभयास्यांघ्रिहस्तानां जङ्गमामिव पद्मिनीम् । जयन्तीं करिणीं हंसीं सिंहीं च गतिविभ्रमैः ॥ ६६ ॥ विद्यालिङ्गनजामीयां धारयन्तीं दशानने । पद्मालयं परित्यज लक्ष्मीमिव समागताम् ॥ ६७॥
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ललाटतट तथा घुटनोंसे पृथ्वीतलका स्पर्श कर जिनेन्द्र भगवान् के पवित्र चरणोंको देर तक नमस्कार किया ।। ५४-५५ ॥ तदनन्तर परम अभ्युदयको धारण करनेवाला दशानन जिनमन्दिरसे बाहर निकलकर दैत्यराज मयके साथ आसनपर सुखसे बैठा ॥ ५६ ॥ | वार्तालापके प्रकरण में जब वह विजयार्धं पर्वत पर रहनेवाले विद्याधरोंका समाचार पूछ रहा था तब मन्दोदरी उसके दृष्टिगोचर हुई ||१७|| मन्दोदरी सुन्दर लक्षणोंसे पूर्ण थी, सौभाग्यरूपी मणियोंकी मानो भूमि थी, उसके चरणकमलोंका पृष्ठ भाग छोटे किन्तु स्निग्ध नखोंसे ऊपरको उठा हुआ जान पड़ता था || ५८ || वह जिन ऊरुओंसे सुशोभित थी वे केलेके स्तम्भके समान थे, कामदेवके तरकसके समान जान पड़ते थे अथवा सौन्दर्यरूपी जल प्रवाहके समान मालूम होते थे || ५९ || वह जिस नितम्बको धारण कर रही थी वह योग्य विस्तार से सहित था, ऊँचा उठा था, कामदेव के सभामण्डपके समान जान पड़ता था और कुछ ऊँचे उठे हुए कूल्हों से मनोहर था ॥ ६० ॥ उसकी कमर वज्रके समान मजबूत अथवा होराके समान देदीप्यमान थी, लज्जाके कारण उसका मुख नीचेकी ओर था, स्वर्णकलशके समान उसके स्तन थे, और शिरीषके फूलोंकी मालाके समान कोमल उसकी दोनों भुजाएँ थीं ॥ ६१ ॥ उसकी गरदन शंख जैसी रेखाओंसे सुशोभित तथा कुछ नीचे की ओर झुकी थी, मुख पूर्णचन्द्रमाके समान था और नाक तो ऐसी जान पड़ती थी मानो नेत्रोंकी कान्तिरूपी नदीके बीचमें पुल ही बाँध दिया गया हो ॥ ६२ ॥ उसके स्वच्छ कपोल ओठों की लाल-लाल कान्तिसे व्याप्त थे तथा उसकी आवाज वीणा, भ्रमर और उन्मत्त कोयलकी आवाजके समान थी || ६३ || उसकी दृष्टि कामदेवकी दूती के समान थी और उससे वह दिशाओंमें नीलकमल, लालकमल तथा सफेद कमलोंका समूह ही मानो बिखेती थी || ६४ || उसका ललाट अष्टमीके चन्द्रमाके समान था, कान सुन्दर थे, तथा चिकने, काले और बारीक बाल थे ||६५ || वह मुख तथा चरणों की शोभासे चलती-फिरती कमलिनीको, हाथों की शोभासे हस्तिनीको तथा गति और विभ्रमके द्वारा क्रमशः हंसी और सिंहनीको जीत रही थी ||६६ || विद्याओंने दशाननका आलिंगन प्राप्त कर लिया और में ऐसी ही रह गयी इस प्रकार ईर्ष्याको धारण करती हुई लक्ष्मी ही मानो कमलरूपी घरको छोड़कर मन्दोदरीके बहाने आ गयी थी || ६७ ॥
१. सहितो म । २. मान ख. । ३. अदृश्यकटीपार्श्व सुन्दरम् इति ख. पुस्तके टिप्पणम् । जङ्घानामिव म. ।
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४. मालां म. ।
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