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पद्मपुराणे
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अणिमा लघिमा क्षोभ्या मनःस्तम्भनकारिणी । संवाहिनी सुरध्वंसी कौमारी वधकारिणी ॥३२६।। सुविधाना तपोरूपा दहनी विपुलोदरी । शुभप्रदा रजोरूपा दिनरात्रिविधायिनी ॥३२७।। वज्रोदरी समावृष्टिरदर्शन्यजरामरा । अनलस्तम्भनी तोयस्तम्भनी गिरिदारिणी ॥३२८॥ अवलोकन्यरिध्वंसी घोरा धीरा भुजङ्गिनी। वारुणी भुवनावध्या दारुणा मदनाशिनी ॥३२९॥ भास्करी भयसंभूतिरैशानी विजया जया । बन्धनी मोचनी चान्या वराही कुटिलाकृतिः ॥३३०॥ चित्तोद्भवकरी शान्तिः कौबेरी वशकारिणी। योगेश्वरी बलोत्सादी चण्डा भीतिः प्रवर्षिणी ॥३३॥ एवमाद्या महाविद्याः पुरासुकृतकर्मणा । स्वल्पैरेव दिनैः प्राप दशग्रीवः 'सुनिश्चलः ॥३३२॥ सर्वाहा रतिसंवृद्धिजृम्भिणी व्योमगामिनी । निद्राणी चेति पञ्चैता भानुकर्ण समाश्रिताः ॥३३३।। सिद्धार्था शत्रुदमनी निर्व्याघाता खगामिनी । विद्या विभीषणं प्राप्ताश्चतस्रो दयिता इव ॥३३४॥ ईश्वरत्वं ततः प्राप्ता विद्यायां ते सुविभ्रमाः । जन्मान्यदिवसं प्रापुर्महासंमदकारणम् ॥३३५॥ ततः पत्यापि यक्षाणां दृष्ट्वा विद्याः समागताः । पूजितास्ते महाभूत्या दिव्यालंकारभूषिताः ॥३३६॥ स्वयंप्रभमिति ख्यातं नगरं च निवेशितम् । मेरुशृङ्गसमुच्छ्रायसद्मपतिविराजितम् ।।३३७॥ मुक्ताजालपरिक्षिप्तगवाक्षेर्दू रमुन्नतैः । रत्नजाम्बूनदस्तम्भैरञ्चितं चैत्यवेश्मभिः ।।३३८॥ अन्योन्यकरसंबन्धजनितेन्द्रशरासनैः । रत्नैः कृतसमुद्योतं नित्यविद्युत्समप्रभैः ।।३३९।। भ्रातृभ्यां सहितस्तत्र प्रासादे गगनस्पृशि । विद्याबलेन संपन्नः सुखं तस्थौ दशाननः ॥३४०।। जम्बूद्वीपपतिः प्राह तत एवं दशाननम् । विस्मितस्तव वीर्येण प्रसन्नोऽहं महामते ॥३४१॥
जगत्कम्पा, प्रज्ञप्ति, भानुमालिनी, अणिमा, लघिमा, क्षोभ्या, मनःस्तम्भनकारिणी, संवाहिनी, सुरध्वंसी, कौमारी, वधकारिणी, सुविधाना, तपोरूपा, दहनी, विपुलोदरी, शुभप्रदा, रजोरूपा, दिनरात्रिविधायिनी, वज्रोदरी, समाकृष्टि, अदर्शनी, अजरा, अमरा, अनलस्तम्भिनी, तोयस्तम्भिनी, गिरिदारणी, अवलोकिनी, अरिध्वंसी, घोरा, धीरा, भुजंगिनी, वारुणी, भुवना, अवध्या, दारुणा, मदनाशिनी, भास्करी, भयसंभूति, ऐशानी, विजया, जया, बन्धनी, मोचनी, वाराही, कुटिलाकृति, चित्तोद्भवकरी, शान्ति, कौबेरी, वशकारिणी, योगेश्वरी, बलोत्सादी, चण्डा, भीति और प्रवर्षिणी आदि अनेक महाविद्याओंको निश्चल परिणामोंका धारी दशानन पूर्वोपार्जित पूण्य कर्मके उदयसे थोड़े ही दिनोंमें प्राप्त हो गया ॥३२५-३३२॥ सर्वाहा, रतिसंवृद्धि, जृम्भिणी, व्योमगामिनी और निद्राणी ये पाँच विद्याएँ भानुकर्णको प्राप्त हुई ॥३३३।। सिद्धार्था, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और
आकाशगामिनी ये चार विद्याएँ प्रिय स्त्रियोंके समान विभीषणको प्राप्त हुईं ॥३३४।। इस प्रकार विद्याओंके ऐश्वर्यको प्राप्त हुए वे तीनों भाई महाहर्षके कारणभत नूतन जन्मको ही मानो प्राप्त हुए थे ॥३३५।। तदनन्तर यक्षोंके अधिपति अनावृत यक्षने भी विद्याओंको आया देख महावैभवसे उन तीनों भाइयोंकी पूजा की और उन्हें दिव्य अलंकारोंसे अलंकृत किया ॥३३६।। दशाननने विद्याके प्रभावसे स्वयंप्रभ नामका नगर बसाया। वह नगर मेरुपर्वतके शिखरके समान ऊँचे-ऊँचे मकानोंकी पंक्तिसे सुशोभित था ॥३३७॥ जिनके झरोखोंमें मोतियोंकी झालर लटक रही थी, जो बहुत ऊंचे थे तथा जिनके खम्भे रत्न और स्वर्णके बने थे ऐसे जिनमन्दिरोंसे अलंकृत था ॥३३८।। परस्परकी किरणोंके सम्बन्धसे जो इन्द्रधनुष उत्पन्न कर रहे थे, तथा निरन्तर स्थिर रहनेवाली बिजलीके समान जिनकी प्रभा थी ऐसे रत्नोंसे वह नगर सदा प्रकाशमान रहता था ॥३३९॥ उसी नगरके गगनचुम्बी राजमहलमें विद्याबलसे सम्पन्न दशानन अपने दोनों भाइयोंके साथ सुखसे रहने लगा ॥३४०।। तदनन्तर आश्चर्यसे भरे जम्बूद्वीपके अधिपति अनावृत यक्षने एक दिन दशाननसे कहा कि
१. सुनिश्चयः म., क. । २ समुच्छायं म. ।
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