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पद्मपुराणे अस्मद्वयसनविच्छेदपुण्यैर्जातोऽसि सांप्रतम् । वक्त्रेणैकेन ते तोषात् कथयामि कथं कथाम् ॥३८४॥ नभश्चरगणैरेमिः प्रत्याशा जीवितं प्रति । मुक्ता सती पुनर्बद्धा त्वय्युत्साहपरायणे ॥३८५॥ कैलासमन्दरायातेरस्माभिर्वन्दितुं जिनम् । प्रणम्यातिशयज्ञानः पृष्टः श्रमणसत्तमः ॥३८६॥ भविता पुनरस्माकं कदा नाथ समाश्रयः । लङ्कायामिति सद्वाक्यमेवमाहानुकम्पकः ॥३८७।। लप्स्यते भवतः पुत्राजन्म यः पुरुषोत्तमः । संभूतायां वियबिन्दोः स लङ्कायां प्रवेशकः ॥३८८॥ भरतस्य स खण्डांस्त्रीन् भोक्ष्यते बलविक्रमः । सत्त्वप्रतापविनयश्रीकीर्तिरुचिसंश्रेयः ॥३८९॥ गृहीतां रिपुणा लक्ष्मी मोचयिष्यत्यसावपि । नैतच्चित्रं यतस्तस्यां स प्राप्स्यति परां श्रियम् ॥३९०॥ स त्वं महोत्सवो जातः कुलस्य शुभलक्षणः । उपमानविमुक्तेन रूपेण हृतलोचनः ॥३९१॥ इत्युक्तोऽसौ जगादेवमस्त्विति प्रणतानतः । शिरस्यञ्जलिमाधाय कृतसिद्धनमस्कृतिः ॥३९२॥ प्रभावात्तस्य बालस्य बन्धुवर्गस्ततः सुखम् । अध्युवास यथास्थानमरातिभयवर्जितः ॥३९३॥
शार्दूलविक्रीडितम् एवं पूर्वभवार्जितेन पुरुषाः पुण्येन यान्ति श्रियं
कीर्तिच्छन्नदिगन्तरालभुवना नास्मिन् वयः कारणम् । अग्नेः किं न कणः करोति विपुलं भस्म क्षणात् काननं
मत्तानां करिणां भिनत्ति निवहं सिंहस्य वा नार्भकः ॥३९४॥ बोधं ह्याशु कुमुदतीषु कुरुते शीतांशुरोचिर्लवः
संतापं प्रणुदन दिवाकरकरैरुत्पादितं प्राणिनाम् ।
॥३८३।। अब हमारे दुःखोंको दूर करनेवाले पुण्यसे तू उत्पन्न हुआ है । हे पुत्र! एक तेरे मुखसे मुझे जो सन्तोष हो रहा है उसका वर्णन कैसे कर सकता हूँ॥३८४।। इन विद्याधरोंने तो जीवित रहनेकी आशा छोड़ दी थी अब तुझ उत्साहीके उत्पन्न होनेपर फिरसे आशा बांधी है ॥३८५।। एक बार हम जिनेन्द्र भगवान्की वन्दना करनेके लिए कैलास पर्वतपर गये थे। वहाँ अवधिज्ञानके धारी मुनिराजको प्रणाम कर हमने पूछा था कि हे नाथ ! लंकामें हमारा निवास फिर कब होगा ? इसके उत्तरमें दयालु मुनिराजने कहा था ।।३८६-३८७।। कि तुम्हारे पुत्रसे वियबिन्दुकी पुत्रीमें जो उत्तम पुरुष जन्म प्राप्त करेगा वही तुम्हारा लंकामें प्रवेश करानेवाला होगा ॥३८८॥ वह पुत्र बल और पराक्रमका धारी तथा सत्त्व, प्रताप, विनय, लक्ष्मी, कीर्ति और कान्तिका अनन्य आश्रय होगा तथा भरतक्षेत्रके तीन खण्डोंका पालन करेगा ॥३८९|| शत्रुके द्वारा अपने अधीन की हुई लक्ष्मीको यही पुत्र उससे मुक्त करावेगा इसमें आश्चर्यकी भी कोई बात नहीं है क्योंकि वह लंकामें परम लक्ष्मीको प्राप्त होगा ॥३९०।। सो कुलके महोत्सवस्वरूप तू उत्पन्न हो गया है, तेरे सब लक्षण शुभ हैं तथा अनुपमरूपसे तू सबके नेत्रोंको हरनेवाला है ।।३९१।। सुमालीके ऐसा कहनेपर दशाननने लज्जासे अपना मस्तक नीचा कर लिया और 'एवमस्तु' कह हाथ जोड़ सिरसे लगाकर सिद्ध भगवान्को नमस्कार किया ॥३९२।। तदनन्तर उस बालकके प्रभावसे सब बन्धुजन शत्रुके भयसे रहित हो यथास्थान सुखसे रहने लगे ॥३९३।।
तदनन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! इस प्रकार पूर्वोपार्जित पुण्यकर्मके प्रभावसे मनुष्य कीतिके द्वारा दिग्दिगन्तराल तथा लोकको आच्छादित करते हुए लक्ष्मीको प्राप्त होते हैं । इसमें मनुष्यकी आयु कारण नहीं है। क्या अग्निका एक कण क्षणभरमें विशाल वनको भस्म नहीं कर देता अथवा सिंहका बालक मदोन्मत्त हाथियोंके झण्डको विदीर्ण नहीं कर देता ? ॥३९४।। चन्द्रमाकी किरणोंका एक अंश, सूर्यको किरणोंसे उत्पादित प्राणियोंके १. विच्छेदः म., ख. । २. समाश्रयः म. । ३. -रोचेलवः म, ।
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