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सप्तमं पर्व
इत्युक्तास्ते यदा तस्थुः पुस्तकर्मगता इव । तदा कोपेन यक्षाणां पतिरेवमभाषत ॥ २८३ ॥ विस्मृत्य मामि देवं कमन्यं ध्यातुमुद्यताः । अहो चपलतामीषां परमेयममेधसाम् ॥ २८४॥ उपद्रवार्थमेतेषां तत्क्षणं च प्रचण्डवाक् । किङ्कराणामदादाज्ञामाज्ञादानप्रतीक्षिणाम् ॥ २८५ ॥ स्वभावेनैव ते क्रूराः प्राप्य त्वाज्ञां ततोऽधिकाम् । नानारूपधराश्चक्रुः पुरस्तेषामिति क्रियाः ॥ २८६ ॥ कश्चिदुत्प्लुत्य वेगेन गृहीत्वा पर्वतोन्नतिम् । पुरः पपात निर्घातान् घातयन्निव सर्वतः ॥ २८७ ॥ सर्पेण वेष्टनं कश्चिच्चक्रे सर्वशरीरगम् । भूत्वा च केसरी कश्चिद् व्यादायास्यं समागतः ॥ २८८॥ चरन्ये रवं कर्णे वधिरीकृतदिङ्मुखम् । दंशहस्तिमरुदावसमुद्रत्वं गतास्तथा ॥ २८९ ॥ एवंविधैरुपायैस्ते यदा जग्मुर्न विक्रियाम् । ध्यानस्तम्भसमासक्तनिश्चलस्वान्तधारणाः ॥ २९०॥ तदा म्लेच्छबलं भीमं चण्डचण्डालसंकुलम् । करालमायुधैरुयैर्विकृतं तैस्तमोनिमम् ॥ २९१ ॥ कृत्वा पुष्पान्तकं ध्वस्तं विजित्य च किलाहवे । बद्ध्वा रत्नश्रवास्तेषां दर्शितो बान्धवैः समम् ॥२९२॥ अन्तःपुरं च कुर्वाणं विप्रलापं मनश्छिदम् । युष्मासु सत्सु पुत्रेषु दुःखप्राप्तमिति ध्वनत् ॥ २९३॥ पुत्रा रक्षत मां म्लेच्छैर्हन्यमानं महावने । तेषामिति पुरः पित्रा प्रयुक्तो भूरिविप्लवः ॥ २९४ ॥ ताड्यमाना च चण्डालैर्माता निगडसंयुता । कचाकृष्टा विमुञ्चन्ती धारा नयनवारिणः ॥ २९५ ॥ जगाद पश्यतावस्थामीदृशीं मे सुता वने । नीताहं शबरैः पल्लीं कथं युष्माकमग्रतः ॥२९६॥ संभूय मम सर्वेऽपि लब्धविद्याबला अपि । एकस्यापि न पर्याप्ता भुजस्य व्योमचारिणः ॥ २९७ ॥
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॥ २८२ ॥ यक्षके ऐसा कहनेपर भी जब वे मिट्टीसे निर्मित पुतलोंकी तरह निश्चल बैठे रहे तब वह कुपित हो इस प्रकार बोला कि || २८३|| ये लोग मुझे भुलाकर अन्य किस देवका ध्यान करने के लिए उद्यत हुए हैं । अहो ! इन मूर्खोकी यह सबसे बड़ी चपलता है || २८४|| इस तरह कठोर वचन बोलनेवाले उस यक्षेन्द्रने आज्ञा देनेकी प्रतीक्षा करनेवाले अपने सेवकोंको इन तीन भाइयोंपर उपद्रव करनेकी आज्ञा दे दी || २८५ || वे किंकर स्वभावसे ही क्रूर थे फिर उससे भी अधिक स्वामीकी आज्ञा पा चुके थे इसलिए नाना रूप धारण कर उनके सामने तरह-तरहकी क्रियाएँ करने लगे ||२८६|| कोई यक्ष वेगसे पर्वत के समान ऊँचा उछलकर उनके सामने ऐसा गिरा मानो सब ओरसे वज्र ही गिर रहा हो ||२८७ || किसी यक्षने साँप बनकर उनके समस्त शरीरको लपेट लिया और कोई सिंह बनकर तथा मुँह फाड़कर उनके सामने आ पहुँचा ||२८८ ॥ किन्होंने कानोंके पास ऐसा भयंकर शब्द किया कि उससे समस्त दिशाएँ बहरी हो गयीं । तथा कोई दंशमशक बनकर, कोई हाथी बनकर कोई आँधी बनकर, कोई दावानल बनकर और कोई समुद्र बनकर भिन्न-भिन्न प्रकारके उपद्रव करने लगे ||२८९ || ध्यानरूपी खम्भे में बद्ध रहनेके कारण जिनका चित्त अत्यन्त निश्चल था ऐसे तीनों भाई जब पूर्वोक्त उपायोंसे विकारको प्राप्त नहीं हुए ||२९० || तब उन्होंने विक्रिया से म्लेच्छों की एक बड़ी भयंकर सेना बनायी। वह सेना अत्यन्त क्रोधी चाण्डालोंसे युक्त थी, तीक्ष्ण शस्त्रोंसे भयंकर थी और अन्धकारके समूहके समान जान पड़ती थी || २९१ || तब उन्होंने दिखाया कि युद्ध में जीतकर पुष्पान्तक नगरको विध्वस्त कर दिया है तथा तुम्हारे पिता रत्नश्रवाको भाईबन्धुओं सहित गिरफ्तार कर लिया गया है || २९२ || अन्तःपुर भी हृदयको तोड़ देनेवाला विलाप कर रहा है और साथ ही साथ यह शब्द कर रहा है कि तुम्हारे जैसे पुत्रोंके रहते हुए भी हम दुःखको प्राप्त हुए हैं ||२९३ || पिता इस प्रकार चिल्ला-चिल्लाकर उनके सामने बहुत भारी बाधा उत्पन्न कर रहा है कि हे पुत्रो ! इस महावनमें म्लेच्छ मुझे मार रहे हैं सो मेरी रक्षा करो ||२९४ || उन्होंने दिखाया कि तुम्हारी माताको चाण्डाल बेड़ी में डालकर पीट रहे हैं, चोटी पकड़कर घसीट रहे हैं और वह आँसुओं की धारा छोड़ रही है || २९५ || माता कह रही है कि हे पुत्रो ! देखो, वनमें मैं ऐसी अवस्थाको प्राप्त हो रही हूँ । यही नहीं तुम लोगोंके सामने ही शबर लोग मुझे अपनी पल्ली-वसतिमें लिये जा रहे हैं || २९६ || तुम यह पहले झूठ-मूठ ही कहा करते थे कि विद्याबलको
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