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पद्मपुराणे
युगान्तघनमीमानां ततः प्रववृते रणः । देवानां राक्षसानां च दुःप्रेक्ष्यः क्रूरचेष्टितः ॥७२॥ सप्तनापात्यते वाजी रथेन क्षोद्यते रथः । भज्यते दन्तिना दन्ती पादातं च पदातिभिः ॥७३॥ प्रासमुद्गरचक्रासिभुषण्डीमुसलेषुभिः । गदाकनकपाशैश्व छन्नं कृत्स्नं नभस्तलम् ॥७४ || महोत्साहमथो सैन्यं पुरस्सरणदक्षिणम् । दक्षिणं चलितोद्योगं देवानां निवहैः कृतम् ||७५|| विद्युद्वान् चारुयानश्च चन्द्रो नित्यगतिस्तथा । चलद्योतिः प्रभाव्यश्च रक्षसामक्षिणोद् बलम् ॥७६॥ अथर्क्ष सूर्य रजसावुत्तुङ्गकपिकेतुकौ । सीदतो राक्षसान् वीक्ष्य दुर्द्धरौ योद्धुमुद्यतौ ॥७७॥ दर्शिताः पृष्ठमेताभ्यां सर्वे ते सुरपुङ्गवाः । क्षणादन्यत्र दृष्टाभ्यां दधद्द्भ्यां वैद्युतं जवम् ॥७८॥ यातुधाना अपि प्राप्य बलं ताभ्यां समुद्यता । योद्धुं शस्त्रसमूहेन कुर्वाणा ध्वान्तमम्बरे ।। ७९ ।। ध्वंस्यमानं ततः सैन्यं दैवं यातुकपिध्वजैः । दृष्ट्वा क्रुद्धः समुत्तस्थौ स्वयं योद्धुं सुराधिपः ||८० कपियातुधनैर्व्याप्तस्ततो देवेन्द्र भूधरः । शस्त्रवर्षं विमुञ्चद्भिस्तारगर्जनकारिभिः ॥ ८१ ॥ निजगाद ततः शक्रः पालयन् लोकपालिनः । सर्वतो विशिखैर्मुक्तैर्बभञ्ज कपिराक्षसान् ॥ ८२ ॥ अथ माली समुत्तस्थौ सैन्यं दृष्ट्वा समाकुलम् । तेजसा क्रोधजातेन दीपयन् सकलं नमः ॥८३॥ अभवच्च ततो युद्धं मालीन्द्रमतिदारुणम् । विस्मयव्याप्तचित्ताभ्यां सेनाभ्यां कृतदर्शनम् ||८४ ॥ मालिनो मालदेशेऽथ स्वकनामाङ्कितं शरम् । आकर्णाकृष्टनिर्मुक्तं निचखान सुराधिपः || ८५ || संस्ताम्भ्य वेदनां क्रोधान्मालिनाप्यमरोत्तमः । ललाटस्य तटे शक्त्या हतो वेगविमुक्तया ॥ ८६॥
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बाहर निकला ॥ ७१ ॥ तदनन्तर प्रलयकाल के मेघोंके समान भयंकर देवों और राक्षसोंके बीच ऐसा विकट युद्ध हुआ कि जो बड़ी कठिनाईसे देखा जाता था तथा क्रूर चेष्टाओंसे भरा था || ७२ || घोड़ा घोड़ाको गिरा रहा था, रथ रथको चूर्ण कर रहा था, हाथी हाथीको भग्न कर रहा था और पैदल सिपाही पैदल सिपाहीको नष्ट कर रहा था || ७३ || भाले, मुद्गर, चक्र, तलवार, बन्दूक, मुसल, बाण, गदा, कनक और पाश आदि शस्त्रोंसे समस्त आकाश आच्छादित हो गया था ||७४ || तदनन्तर देव कहानेवाले विद्याधरोंने एक ऐसी सेना बनायी जो महान् उत्साहसे युक्त थी, आगे चलने में कुशल थी, उदार थी और शत्रुके उद्योगको विचलित करनेवाली थी || ७५ || देवोंकी सेनाके प्रधान विद्युत्वान्, चारुदान, चन्द्र, नित्यगति तथा चलज्ज्योति प्रभाढ्य आदि देवोंने राक्षसोंकी सेनाको क्षतविक्षत बना दिया । तब वानरवंशियोंमें प्रधान दुर्धर पराक्रमके धारी ऋक्षरज और सूर्यरज राक्षसोंको नष्ट होते देख युद्ध करनेके लिए तैयार हुए ।।७६-७७।। ये दोनों ही वीर विजयी जैसे वेगको धारण करते थे इसलिए क्षण-क्षण में अन्यत्र दिखाई देते थे । इन दोनोंने देवोंको इतना मारा कि उनसे पीठ दिखाते ही बनी || ७८|| इधर राक्षस भी इन दोनोंका बल पाकर शस्त्रोंके समूहसे आकाश
अन्धकार फैलाते हुए युद्ध करनेके लिए उद्यत हुए || ७९ || उधर जब इन्द्रने देखा कि राक्षसों और वानरवंशियोंके द्वारा देवोंकी सेना नष्ट की जा रही है तब वह क्रुद्ध हो स्वयं युद्ध करने के लिए उठा ||८०|| तदनन्तर शस्त्र वर्षा और गम्भीर गर्जना करनेवाले वानर तथा राक्षसरूपी मेघोंने उस इन्द्ररूपी पर्वतको घेर लिया ॥८१॥ तब लोकपालोंकी रक्षा करते हुए इन्द्रने जोरसे गर्जना की और सब ओर छोड़े हुए बाणोंसे वानर तथा राक्षसोंको नष्ट करना शुरू कर दिया ||८२|| तदनन्तर सेनाको व्याकुल देख माली स्वयं उठा । उस समय वह क्रोधसे उत्पन्न तेजसे समस्त आकाशको देदीप्यमान कर रहा था ||८३|| तदनन्तर माली और इन्द्रका अत्यन्त भयंकर युद्ध हुआ । आश्चर्यं से जिनके चित्त भर रहे थे ऐसी दोनों ओर की सेनाएँ उनके उस युद्धको बड़े गौरवसे देख रही थीं ॥ ८४ ॥ तदनन्तर इन्द्रने, जो कान तक खींचकर छोड़ा गया था तथा अपने नामसे चिह्नित था ऐसा एक बाण मालीके ललाटपर गाड़ दिया ॥ ८५ ॥ इधर मालीने भी उसको पीड़ा रोककर वेगसे छोड़ी हुई १. जातु कपि म. ।
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