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पद्मपुराणे शुष्ककाष्टं दधञ्चञ्च्चो 'वीक्षमाणो दिवाकरम् । रेसन् क्रूरमयं ध्वालक्षो निवारयति नो गतिम् ॥४४॥ ज्वालारौद्रमुखी चेयं शिवा नो भुजदक्षिणे । घोरं विरौति रोमाणि दृष्टा निदधती मुहुः ॥४५॥ अयं पतङ्गबिम्बे च परिवषिणि दृश्यते । कबन्धो भीषणो वृष्टकीलाललवजालकः ॥४६॥ घोराः पतन्ति निर्धाताः कम्पिताखिलपर्वताः । दश्यन्ते वनिताः कृत्स्ना मुक्तकेश्यो नभस्तले ॥४७॥ खरं खरः खमुक्षिप्य मुखं मुखरयन्नभः । क्षितिं खनन् खुराग्रेण दक्षिणः कुरुते स्वरम् ॥४८॥ प्रत्युवाच ततो माली सुभालिनमिति स्फुटम् । कृत्या स्मितं दृढं बाहू केयूराभ्यां निपीडयन् ।।४९।। अभिप्रेत्य वधं शत्रोरारुह्य जयिनं द्विपम् । प्रस्थितः पौरुषं बिभ्रत्कथं भूयो निवर्तते ॥५०॥ दंष्ट्रयोः प्रेशणं कुर्वन् क्षरदानस्य दन्तिनः । चक्षुर्वित्रासितारातिः 'पूर्यमाण: शितैः शरैः ॥५१॥ दन्तदष्टाधरो बद्धभ्रकुटीकुटिलाननः । विस्मितैरमरैर्दृष्टो भटः किं विनिवर्तते ॥५२।। कन्दरासु रतं मेरोनन्दने चारुनन्दने । चैत्यालया जिनेन्द्राणां कारिता गगनस्पृशः ॥५३॥ दत्तं किमिच्छकं दानं भुक्ता भोगा महागुणाः । यशो धवलिताशेषभुवनं समुपार्जितम् ॥५४॥ जन्मनेत्थं कृतार्थोऽस्मि यदि प्राणान्महाहवे । परित्यजामि कियता कृतमन्येन वस्तुना ॥५५॥ अपो पलायितो भीतो वराक इति भाषितम् । कथमाकर्णयद्वीरो जनतायाः सुचेतसः ॥५६॥ इति संभाषमाणोऽसौ भ्रातरं भासुराननः । विजयाद्रस्य मूर्धानं क्षणादविदितं ययौ ॥५७।।
है मानो हम लोगों को आगे जानेसे रोक रहा है ॥४३-४४।। इधर ज्वालाओंसे जिसका मुख अत्यन्त रुद्र मालूम होता है ऐसी यह शृगाली दक्षिण दिशामें रोमांच धारण करती हुई भयंकर शब्द कर रही है ।।४५।। देखो, परिवेषसे युक्त सूर्यके बिम्बमें वह भयंकर कबन्ध दिखाई दे रहा है और उससे खूनकी बूंदोंका समूह बरस रहा है ॥४६।। उधर समस्त पवंतोंको कम्पित करनेवाले भयंकर वन गिर रहे हैं तो इधर आकाशमें खुले केश धारण करनेवाली समस्त स्त्रियाँ दिखाई दे रही हैं ।।४७।। देखो. दाहिनी ओर वह गर्दभ ऊपरको मख उठाकर आकाशको बडी तीक्ष्णतासे मुखरित कर रहा है तथा खरके अग्रभागसे पथिवीको खोदता हआ भयंकर शब्द कर रहा है ॥४८॥ तदनन्तर बाजूबन्दोंसे दोनों भुजाओंको अच्छी तरह पीड़ित करते हुए मालीने मुसकराकर सुमालीको इस प्रकार स्पष्ट उत्तर दिया कि शत्रुके वधका संकल्प कर तथा विजयी हाथीपर सवार हो जो पुरुषार्थका धारी युद्धके लिए चल पड़ा है वह वापस कैसे लौट सकता है ।।४९-५०॥ जो मदमत्त हाथोकी दाढ़ोंको हिला रहा है, अपनी आँखोंसे ही जिसने शत्रुओंको भयभीत कर दिया है, जो तीक्ष्ण बाणोंसे परिपूर्ण है, दाँतोंसे जिसने अधरोष्ठ चाब रखा है, तनी हुई भ्रकुटियोंसे जिसका मुँह कुटिल हो रहा है तथा देव लोग जिसे आश्चर्यचकित हो देखते हैं ऐसा योद्धा क्या वापस लौटता है ? ॥५१-५२।। मैंने मेरु पर्वतकी कन्दराओं तथा सुन्दर नन्दन वनमें रमण किया है, गगनचुम्बी जिनमन्दिर बनवाये हैं ॥५३।। किमिच्छक दान दिया है, उत्तमोत्तम भोग भोगे हैं और समस्त संसारको उज्ज्वल करनेवाला यश उपार्जित किया है ।।५४।। इस प्रकार जन्म लेनेका जो कार्य था उसे मैं कर चुका हूँ-कृतकृत्य हुआ हूँ, अब युद्ध में मुझे प्राण भी छोड़ना पड़े तो इससे क्या? मुझे अन्य वस्तुकी आवश्यकता नहीं ।।५५।। 'वह बेचारा भयभीत हो युद्धसे भाग गया' जनताके ऐसे शब्दोंको धीरवीर मनुष्य कैसे सुन सकता है ॥५६|| क्रोधसे जिसका मुख तमतमा रहा था ऐसा माली भाईसे इस प्रकार कहता हुआ तत्क्षण बिना जाने ही विजयार्धके शिखरपर चला गया ॥५७।। तदनन्तर जिन-जिन विद्याधरोंने उसका शासन नहीं माना था १. वीक्ष्यमाण: म., ख. । २. रसक्रूरमयं म.। ३. हृष्टया म.। ४. मुञ्चत्कीलाल-म.। ५. आकाशं । ६. केशराभ्यां म. । ७. भूपो म.। ८. प्रेक्षणं म.। ततो हि प्रेक्षणं क.। ९. तर्यमाणः म. (?)। १०. चारुवन्दिने म. । चारनन्दनः क.।
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