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पद्मपुराणे यथेच्छं द्रविणं दत्तं विचारपरिवर्जितम् । प्रचलो करैर्नृत्तं गजैरपि सहितम् ॥१६॥ उत्पाताः शत्रुगेहेषु संजाताः शोकसूचिनः । बन्धुगेहेषु चोत्पन्नाः सूचिका भूरिसंपदः ॥१७॥ अभिलाषो यतस्तस्मिन्मातुर्गर्भस्थितेऽभवत् । इन्द्रभोगे ततः पित्रा कृतं तस्येन्द्रशब्दनम् ॥१८॥ बालक्रीडा बभूवास्य शक्तयूनोऽपि जित्वरी । मिदुरा रिपुदर्पाणां सृत्वरी चारुकर्मणि ॥१९॥ क्रमात् स यौवनं प्राप्तस्तेजोनिर्जितभास्करम् । कान्तिनिर्जितरात्रीशं स्थैर्य निर्जितपर्वतम् ॥२०॥ ग्रस्ता इव दिशस्तेन सुविस्तीर्णन वक्षसा। दिङ्नागकुम्भतुङ्गांसस्थवीयो वृत्तबाहुना ॥२१॥ ऊरुस्तम्भद्वयं तस्य सुवृत्तं गूढजानुकम् । जगाम परमस्थैर्य वक्षोभवनधारणात् ॥२२॥ विजयाद्धगिरी तेन सर्व विद्याधराधिपाः । ग्राहिता चैतसी वृत्तिं महाविद्याबलद्धिना ॥२३॥ इन्द्रमन्दिरसंकाशं भवनं तस्य निर्मितम् । चत्वारिंशत्सहाष्टाभिः सहस्राणि च योषिताम् ॥२४॥ षड्विंशतिसहस्राणि ननृतुर्नाटकानि च । दन्तिनां व्योममार्गाणां वाजिनां च निरन्तता ॥२५।। शशाङ्कधवलस्तुङ्गो गगनाङ्गणगोचरः । दुर्निवार्यो महावीर्यो दंष्ट्राष्टकविराजितः ॥२६॥ दन्तिराजो महावृत्तकरार्गलितदिङमुखः । ऐरावताभिधानेन गुणश्च प्रथितो भुवि ॥२७॥ शक्त्या परमया युक्तं लोकपालचतुष्टयम् । शची च महिषी रम्या सुंधर्माख्या तथा सभा ॥२८॥
वज्र प्रहरणं त्रीणि सदांस्यप्सरसां गणाः । नाम्ना हरिणकेशी च सेनायास्तस्य चाधिपः ॥२९।। समय जब नूपुरोंकी झनकारके साथ अपने पैर पृथिवीपर पटकती थीं तो पृथिवीतल काँप उठता था ।।१५।। बिना विचार किये इच्छानुसार धन दानमें दिया गया। मनुष्यों की बात दूर रही हाथियोंने भी उस समय अपनी चंचल सूंड़ ऊपर उठाकर गर्जना करते हुए नृत्य किया था ॥१६।। शत्रुओंके घरोंमें शोकसूचक उत्पात होने लगे और बन्धुजनोंके घरोंमें बहुत भारी सम्पदाओंकी सूचना देनेवाले शुभ शकुन होने लगे ॥१७॥ चूँकि बालक के गर्भ में रहते हुए माताको इन्द्रके भोग भोगनेकी इच्छा हुई थी इसलिए पिताने उस बालकका इन्द्र नाम रखा ॥१८॥ वह बालक था फिर भी उसकी क्रीडाएँ शक्तिसम्पन्न तरुण मनुष्यको जीतनेवाली थीं, शत्रओंका मान खण्डित करनेवाली थीं और उत्तम कार्य में प्रवृत्त थीं ॥१९।। क्रम-क्रमसे वह उस यौवनको प्राप्त हुआ जिसने तेजसे सूर्यको, कान्तिसे चन्द्रमाको और स्थैर्यसे पर्वतको जीत लिया था ॥२०॥ उसके कन्धे दिग्गजके गण्डस्थलके समान स्थूल और भुजाएँ गोल थीं तथा उसने विशाल वक्षःस्थलसे समस्त दिशाएँ मानो आच्छादित ही कर रखी थीं ॥२१॥ जिनके घुटने मांसपेशियोंमें गूढ़ थे ऐसी उसकी दोनों गोल जाँघे स्तम्भोंकी तरह वक्षःस्थलरूपी भवनको धारण करनेके कारण परम स्थिरताको प्राप्त हुई थीं ॥२२॥ बहुत भारी विद्याबल और ऋद्धिसे सम्पन्न उस तरुण इन्द्रने विजयाध पर्वतके समस्त विद्याधर राजाओंको बेंतके समान नम्रवृत्ति धारण करा रखी थी अर्थात् सब उसके आज्ञाकारी थे ॥२३॥ उसने इन्द्रके महलके समान सुन्दर महल बनवाया। अड़तालीस हजार उसकी स्त्रियाँ थीं। छब्बीस हजार नृत्यकार नत्य करते थे । आकाशमें चलनेवाले हाथियों और घोड़ोंकी तो गिनती ही नहीं थी ॥२४-२५॥ एक हाथी था, जो चन्द्रमाके समान सफेद था, ऊँचा था, आकाशरूपी आँगन में चलनेवाला था, जिसे कोई रोक नहीं सकता था, महाशक्तिशाली था, आठ दाँतोंसे सुशोभित था, बड़ी मोटो गोल सूंडसे जो दिशाओंमें मानो अर्गल लगा रखता था, तथा गुणोंके द्वारा पृथिवीपर प्रसिद्ध था, उसका उसने ऐरावत नाम रखा था ॥२६-२७।। चारों दिशाओंमें परम शक्तिसे युक्त चार लोकपाल नियुक्त किये, पट्टरानीका नाम शची और सभाका नाम सुधर्मा रखा ॥२८॥ वज्र नामका शस्त्र, तीन सभाएं, अप्सराओंके समूह, हरिणकेशी सेनापति,
१. शक्त्या म. I शक्ता खः । २. सत्वरी म.। ३. निरहसाम् म.। ४. ख्याता रम्या तथा सभा क.। ५. वक्र क.।
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