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पद्मपुराणे शरीरेणेव संयुक्तां साक्षाद्विद्यामुपागताम् । वशीकृतामुदारेण तपसा कान्तिशालिनीम् ॥१५७॥ पप्रच्छ प्रियया वाचा करुणावान् स्वमावतः । प्रमदासु विशेषेण कन्यकासु ततोऽधिकम् ॥१५॥ कस्यासि दुहिता बाले किमर्थ वा महावने । एकाकिनी मृगीवास्मिन् यूथाद् भ्रष्टावतिष्ठसे ॥१५९॥ के वा भजन्ति ते वर्णा नाम पुण्यमनोरथे । पक्षपातो भवत्येव योगिनामपि सजने ॥१६॥ तस्मै साकथयद् वाचा गद्गदत्वमुपेतया । दधत्यात्यन्तमाधुर्य चेतश्चोरणदक्षया ॥१६॥ उत्पन्ना मन्दवत्यङ्गे व्योमबिन्दोरहं सुता । केकसीति भवत्सेवां कर्तुं पित्रा निरूपिता ॥१६२॥ तत्रैव समये तस्य सिद्धा विद्या महौजसः । मानसस्तम्भिनी नाम्ना क्षणदर्शितविग्रहा ॥१६३॥ ततो विद्याप्रभावेण तस्मिन्नेव महावने । पुरं पुष्पान्तकं नाम क्षणात्तेन निवेशितम् ॥१६॥ कृत्वा पाणिगृहीतां च केकसी विधिना ततः। रेमे तत्र पुरे प्राप्य भोगान् मानसकल्पितान् ॥१६५॥ बभूव च तयोः प्रीतिर्जाया पत्योरनुत्तरा । क्षणार्द्धमपि नो सेहे वियोग या सुचेतसोः ॥१६६॥ मृतामिव स तां मेने लोचनागोचरस्थिताम् । निमेषादर्शनान्म्लानिं व्रजन्तीं मृदुमानसाम् ॥१६७॥ वक्त्रचन्द्रेऽक्षिणी तस्यास्तस्य नित्यं व्यवस्थिते । सर्वेषां वा हृषीकाणां सा बभूवास्य बन्धनम् ॥१६८॥ 'अनन्यजेन रूपेण यौवनेन धनश्रिया । विद्याबलेन धर्मण सक्तिरासीत्परं तयोः ॥१६९।। व्रजन्ती व्रज्यया युक्ने तिष्ठन्ती स्थितिमागते । छायेव साभवत् पत्यावनुवर्तनकारिणी ॥१७०॥
त्रिभुवनसम्बन्धी समस्त स्त्रियोंका सौन्दर्य एकत्रित कर कर्मोंने उसकी रचना की थी ॥१५६।। वह केकसी ऐसी जान पड़ती थी मानो रत्नश्रवाके उत्कृष्ट तपसे वशीभूत हुई कान्तिसे सुशोभित साक्षात् विद्या ही शरीर धरकर सामने खड़ी हो ॥१५७॥ रत्नश्रवा स्वभावसे ही दयालु था और विशेषकर स्त्रियोंपर तथा उनसे भी अधिक कन्याओंपर अधिक दयालु था अतः उसने प्रिय वचनोंसे पूछा कि हे बाले ! तू किसकी लड़की है ? और इस महावनमें झुण्डसे बिछुड़ी हरिणीके समान किस लिए खड़ी है ? ॥१५८-१५९|| हे पुण्य मनोरथे ! कौन-से अक्षर तेरे नामको प्राप्त हैं ? रत्नश्रवाने केकसीसे ऐसा पूछा सो उचित ही था क्योंकि सज्जनके ऊपर साधुओंका भी पक्षपात हो ही जाता है ॥१६०। इसके उत्तरमें अनन्त माधुर्यको धारण करनेवाली एवं चित्तके चुराने में समर्थ गद्गद वाणीसे केकसीने कहा कि मैं मन्दवतीके शरीरसे उत्पन्न राजा व्योमबिन्दुकी पुत्री हूँ, केकसी मेरा नाम है और पिताकी प्रेरणासे आपकी सेवा करनेके लिए आयी हूँ ॥१६१-१६२॥ उसी समय महातेजस्वी रत्नश्रवाको मानसंस्तम्भिनी नामकी विद्या सिद्ध हो गयी सो उस विद्याने उसी समय अपना शरीर प्रकट कर दिखाया ॥१६३।।
तदनन्तर उस विद्याके प्रभावसे उसने उसी वनमें तत्क्षण ही पुष्पान्तक नामका नगर बसाया ॥१६४।। और केकसीको विधिपूर्वक अपनी स्त्री बनाकर उसके साथ मनचाहे भोग भोगता हुआ वह उस नगरमें क्रीड़ा करने लगा ॥१६४-१६५।। शोभनीय हृदयको धारण करनेवाले उन दोनों दम्पतियोंमें ऐसी अनुपम प्रीति उत्पन्न हुई कि वह आधे क्षणके लिए भी उनका वियोग सहन नहीं कर सकती थी ॥१६६।। यदि केकसी क्षण-भरके लिए भी रत्नश्रवाके नेत्रोंके ओझल होती थी तो वह उसे ऐसा मानने लगता था मानो मर हो गयी हो। और केकसी भी यदि उसे पल-भरके लिए नहीं देखती थी तो म्लानिको प्राप्त हो जाती थी-उसकी मुखको कान्ति मुरझा जाती थी। कोमल चित तो उसका था ही ॥१६७। रत्नश्रवाके नेत्र सदा केकसीके मुखचन्द्रपर ही गड़े रहते थे अथवा यों कहना चाहिए कि केकसी, रत्नश्रवाकी समस्त इन्द्रियोंका मानो बन्धन ही थी ॥१६८।। अनुपम रूप, यौवन, धन-सम्पदा, विद्याबल और पूर्वोपार्जित धर्मके
१. त्वमिहावनौ.। २. पुण्यमनोरथैः । ३. दर्शनम्लानि म. । ४. अनन्यजकरूपेण म. । ५. व्रजया म., क.।
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