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सप्तमं पर्व
अथासौ विपुले कान्ते क्षीराकूपारपाण्डुरे । रत्नदीपकृतालोके दुकूलपटकोमले ॥१७१॥ यथेष्टेगलके न्यस्तनानावर्णोपधानके । निःश्वासामोदनिर्णिद्विरेफसमुपासिते ॥१७२॥ परितः स्थितयामस्त्रीविनिद्रनयनेक्षिते । तनुदन्त विनिर्माणपट्टके शयनोत्तमे ॥१७३॥ चिन्तयन्ती गुणान् पत्युमनोबन्धनकारिणः । वाञ्छन्ती च सुतोत्पत्तिं सुखं निन्द्रामुपागता ॥१७॥ ईक्षांचक्रे परान् स्वप्नान् महाविस्मयकारिणः । अव्यक्तचलनाध्यायिसखीवीक्षितविग्रहा ॥१७५॥ ततः प्रभाततूर्येण शङ्खशब्दानुकारिणा । मागधानां च वाणीभिः सुप्रबोधनमागता ॥१७६॥ कृतमङ्गलकार्यार्थ्यं नेपथ्यं दधती शुभम् । सखीभिरन्वितागच्छन् मनोज्ञा भर्तुरन्तिकम् ॥१७७॥ आसीना चाञ्जलिं कृत्वा पत्युः पावें सुविभ्रमा। भद्रासनेंऽशुकच्छन्ने क्रमात् स्वप्नान्न्यवेदयत् ॥१७८॥ अद्य रात्रौ मया यामे चरमे नाथ वीक्षिताः । त्रयः स्वप्नाः श्रुतौ तेषां प्रसादं कर्तुमर्हसि ॥१७९॥ बृहद्वन्दं गजेन्द्राणां ध्वंसयन् परमौजसा । कुक्षिमास्येन मे सिंहः प्रविष्टो नभसस्तलात् ॥१८०॥ विद्रावयन् मयूखैश्च ध्वान्तं गजकुलासितम् । स्थितो विहायसो मध्यादङ्के कमलबान्धवः ॥१८१॥ कुर्वन्मनोहरा लीलों दूरयन् तिमिरं करैः । अखण्डमण्डलो दृष्टः पुरः कुमुदनन्दनः ॥१८२॥ दृष्टमात्रेषु चैतेषु विस्मयाक्रान्तमानसा । प्रभाततूर्यनादेन गताहं वीतनिद्रताम् ॥ १८३॥
कारण उन दोनोंमें परस्पर परम आसक्ति थी ॥१६९|| जब रत्नश्रवा चलता था तब केकसी भी चलने लगती थी और जब रत्नश्रवा बैठता था तो केकसी भी बैठ जाती थी। इस तरह वह छायाके समान पतिकी अनुगामिनी थी ॥१७०॥
अथानन्तर-एक दिन रानी केकसी रत्नोंके महल में ऐसी शय्यापर पड़ी थी कि जो विशाल थी, सुन्दर थी, क्षीरसमद्रके समान सफेद थी, रत्नोंके दीपकोंका जिसपर प्रकाश फैल रहा था. जो रेशमी वस्त्रसे कोमल थी, ॥१७१। जिसपर यथेष्ट गद्दा बिछा हुआ था, रंगबिरंगी तकियाँ रखी हुई थी, जिसके आस-पास श्वासोच्छ्वासकी सुगन्धिसे जागरूक भौंरे मँडरा रहे थे ।।१७२।। चारों ओर पहरेपर खड़ी स्त्रियाँ जिसे निद्रारहित नेत्रोंसे देख रही थीं, और जिसके समीप ही हाथी-दाँतकी बनी छोटी-सी चौकी रखी हुई थी ऐसी उत्तम शय्यापर केकसी मनका बन्धन करनेवाले पतिके गुणोंका चिन्तवन करती और पुत्रोत्सत्तिकी इच्छा रखती हुई सुखसे सो रही थी ॥१७३-१७४।। उसी समय स्थिर होकर ध्यान करनेवाली अर्थात् सूक्ष्म देख-रेख रखनेवाली सखियाँ जिसके शरीरका निरीक्षण कर रही थीं ऐसी केकसीने महाआश्चर्य उत्पन्न करनेवाले उत्कृष्ट स्वप्न देखे ||१७५।। तदनन्तर शंखोंके शब्दका अनुकरण करनेवाली प्रातःकालीन तुरहीकी मधुर ध्वनि और चारणोंकी रम्य वाणीसे केकसी प्रबोधको प्राप्त हुई ॥१७६।। सो मंगल कार्य करनेके अनन्तर शुभ तथा श्रेष्ठ नेपथ्यको धारण कर मनको हरण करती हुई, सखियोंके साथ पतिके समीप पहुँची ॥१७७॥ वहाँ हाथ जोड़, हाव-भाव दिखाती हुई, पतिके समीप, उत्तम वस्त्रसे आच्छादित सोफापर बैठकर उसने स्वप्न देखनेकी बात कही ।।१७८॥ उसने कहा कि हे नाथ ! आज रात्रिके पिछले पहर मैंने तीन स्वप्न देखे हैं सो उन्हें सुनकर प्रसन्नता कीजिए ॥१७९।। पहले स्वप्नमें मैंने देखा है
ने उत्कृष्ट तेजसे हाथियोंके बडे भारी झण्डको विध्वस्त करता हआ एक सिंह आकाशतलसे नीचे उतरकर मुख-द्वारसे मेरे उदरमें प्रविष्ट हुआ है ॥१८०॥ दूसरे स्वप्न में देखा है कि किरणोंसे हाथियोंके समूहके समान काले अन्धकारको दूर हटाता हुआ सूर्य आकाशके मध्य भागमें स्थित है ॥१८१।। और तीसरे स्वप्नमें देखा है कि मनोहर लीलाको करता और किरणोसे अन्धकारको दूर हटाता हुआ पूर्ण चन्द्रमा हमारे सामने खड़ा है ॥१८२।। इन स्वप्नोंके दिखते ही मेरा मन १. यथेष्टदेहविन्यस्त- म. । २. समुपासते म. । ३. यामश्री म.। ४. तत्र दन्त म. । ५. अव्यक्तचलनादायि म. । अव्यक्तवलनादायि क.। ६. सापि प्रबोध म. ।
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