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सप्तमं पर्व
१४३ ततोऽपमानितं यैः शासनं खेचराधिपः । तत्पुराणि स सामन्तैर्ध्वसयामास दारुणः ॥५०॥ उद्यानानां महाध्वंसो जनितः क्रोधिभिः खगैः । यथा कमलखण्डानां मातङ्गैर्मदमन्थरैः ॥५९॥ ततः संबाध्यमाना सा प्रजा गगनचारिणाम् । जगाम शरणं प्रस्ता सहस्रारं सवेपथुः ॥६॥ पादयोश्च प्रणम्योचे वचो दीनमिदं भृशम् । सुकेशस्य सुतैर्ध्वस्तां समस्तां नाथ पालय ॥६१।। सहस्रारस्ततोऽवोचत् खगा गच्छत मत्सुतम् । विज्ञापयत युष्माकं सपरित्राणकारणम् ॥६२।। त्रिविष्टपं यथा शक्रो रक्षत्यूर्जितशासनः । एवं लोकमिमं पाति स सर्व त्रसूदनः ॥६३॥ एवमुक्तास्ततो जग्मुरिन्द्राभ्यासं नभश्चराः । कृत्वाञ्जलिं प्रणेमुश्च वृत्तान्तं च न्यवेदयन् ॥६॥ इन्द्रस्ततोऽवदत् ऋद्धो दर्पस्मितसिताननः । पावें व्यवस्थिते वजे दया लोहितलोचने ॥६५॥ यत्नेन महतान्विष्य हन्तव्या लोककण्टकाः। किं पुनः स्वयमायाताः समीपं लोकपालिनः ॥६६॥ ततो मत्तद्विपालानस्तम्भमङ्गस्य कारणम् । रणसंज्ञाविधानार्थ विषमं तूर्यमाहतम् ॥६७।। संनाहमण्डनोपेता निरीयुश्च नभश्चराः । हेतिहस्ताः परं हर्ष बिभ्राणा रणसंभ्रमम् ॥६८॥ स्थैरश्वैर्गजैरुष्ट्र: सिंहावृकैर्मगैः । हंसच्छागैर्वृषैषैर्विमानैर्वहणैः खरैः ॥६९।। लोकपालाश्च निर्जग्मुनिजवर्गसमन्विताः । नानाहेतिप्रभाश्लिष्टा भ्रूभङ्गविषमाननाः ॥७॥
ऐरावतं समारुह्य कङ्कटच्छन्नविग्रहः । समुच्छ्रितसितच्छत्रो निरैदिन्द्रः समं सुरैः ।।७१॥ उन सबके नगर उसने क्रूर सामन्तोंके द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दिये ॥५८॥ जिस प्रकार मदमाते हाथी कमल वनोंको विध्वस्त कर देते हैं उसी प्रकार क्रोधसे भरे विद्याधरोंने वहाँके उद्यान-बाग-बगीचे विध्वस्त कर दिये ।।५९।। तदनन्तर मालोके सामन्तों द्वारा पीड़ित विद्याधरोंको प्रजा भयसे काँपती हुई सहस्रारकी शरणमें गयी ॥६०। और उसके चरणोंमें नमस्कार कर इस प्रकार दोनता-भरे शब्द कहने लगी-हे नाथ! सुकेशके पुत्रोंने समस्त प्रजाको क्षत-विक्षत कर दिया है सो उसकी रक्षा करो ॥६१।। तब सहस्रारने विद्याधरोंसे कहा कि आप लोग मेरे पुत्र-इन्द्रके पास जाओ और उससे अपनी रक्षाकी बात कहो ॥६२॥ जिस प्रकार बलिष्ठ शासनको धारण करनेवाला इन्द्र स्वर्गकी रक्षा करता है उसी प्रकार पापको नष्ट करनेवाला मेरा पुत्र इस समस्त लोककी रक्षा करता है ॥६३॥
__इस प्रकार सहस्रारका उत्तर पाकर विद्याधर इन्द्रके समीप गये और हाथ जोड़ प्रणाम करनेके बाद सब समाचार उससे कहने लगे ॥६४॥ तदनन्तर गर्वपूर्ण मुसकानसे जिसका मुख सफेद हो रहा था ऐसे क्रुद्ध इन्द्रने पासमें रखे वज्रपर लाल-लाल नेत्र डालकर कहा कि॥६५।। जो लोकके कण्टक हैं मैं उन्हें बड़े प्रयत्नसे खोज-खोजकर नष्ट करना चाहता हूँ फिर आप लोग तो स्वयं ही मेरे पास आये हैं और मैं लोकका रक्षक कहलाता हूँ ॥६६॥ तदनन्तर जिसे सुनकर मदोन्मत्त हाथी अपने बन्धनके खम्भोंको तोड़ देते थे ऐसा तुरहीका विषम शब्द उसने युद्धका संकेत करनेके लिए कराया ॥६७|| उसे सुनते हो जो कवचरूपी आभूषणसे सहित थे, हथियार जिनके हाथमें थे और जो युद्ध सम्बन्धी परम हर्ष धारण कर रहे थे ऐसे विद्याधर अपने-अपने घरोंसे बाहर निकल पड़े ॥६८।। वे विद्याधर मायामयी रथ, घोड़े, हाथी, ऊँट, सिंह, व्याघ्र, भेड़िया, मृग, हंस, बकरा, बैल, मेढ़ा, विमान, मोर और गर्दभ आदि वाहनोंपर बैठे थे ॥६९।। इनके सिवाय जो नाना प्रकारके शस्त्रोंकी प्रभासे आलिंगित थे तथा भौंहोंके भंगसे जिनके मुख विषम दिखाई देते थे ऐसे लोकपाल भी अपनेअपने परिकरके साथ बाहर निकल पड़े ॥७०॥ जिसका शरीर कवचसे आच्छादित था, और जिसके ऊपर सफेद छत्र फिर रहा था ऐसा इन्द्र विद्याधर भी ऐरावत हाथीपर आरूढ़ हो देवोंके साथ
१. शासयामास क., ख. । २. रक्षस्यूजित म. । ३. वृत्तसूदनः म., क. । पापहारकः । ४. निरगच्छत् ।
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