________________
सप्तमं पर्व
अत्रान्तरे पुरे राजा रथनूपुरनामनि । सहस्रार इति ख्यातो बभूवात्यन्तमुद्धतः ||१|| तस्य भार्या वभूवेष्टा नाम्ना मानससुन्दरी । सुन्दरी मानसेनालं शरीरेण च सद्गुणा ॥२॥ अन्तर्वत्नी सतीमेतामत्यन्तकृशविग्रहाम् । भर्ताष्टच्छत् श्लथाशेषभूषणां वीक्ष्य सादरम् ॥ ३ ॥ बिभ्रत्यङ्गानि ते कस्मान्नितान्तं तनुतां प्रिये । किं तवाकाङ्क्षित राज्ये मम जायेत दुर्लभम् ||४||
1
प्रगल्भतां ब्रूहि तवाद्यैव समीहितम् । संपादयामि निःशेषं देवि प्राणगरीयसि ॥ ५ ॥ कर्तुं शक्तोऽस्मि ते कान्ते सुरस्त्रीकृत शासनाम् । शचीमपि कराग्राभ्यां पादसंवाहकारिणीम् ||६|| इत्युक्ता सा ततस्तेन वरारोहाङ्कसंश्रिता । जगाद विनयादेवं वचनं लीलयान्वितम् ||७|| यस्मादारभ्य मे गर्भे संभवं कोऽप्ययं गतः । ततः प्रभृति वाञ्छामि भोक्तुमिन्द्रस्य संपदम् ||८|| इमे मनोरथा नाथ परित्यज्य मया त्रपाम् । परायत्ततयात्यन्तं भवतो विनिवेदिताः || ९ || इत्युक्ते कल्पिता भोगसंपत्तस्याः सुरेन्द्रजा । विद्याबलसमृद्धेन सहस्रारेण तत्क्षणात् ॥१०॥ संपूर्ण दोहदा' जाता सा ततः पूर्णविग्रहा । धारयन्ती दुराख्यानां द्युतिं कान्ति च भामिनी ॥ ११ ॥ व्रजता रविणायूर्ध्व खेदं जग्राह तेजसा । अभ्यवाञ्छ्च्च सर्वासां दातुमाज्ञां दिशामपि ॥ १२ ॥ काले पूर्णे च संपूर्णलक्षणाङ्गमसूत सा । दारकं बान्धवानन्दसंपदुत्तमकारणम् ||१३|| ततो महोत्सवं चक्रे सहस्रारः प्रमोदवान् । शङ्खतूर्यनिनादेन वधिरीकृतदिङ्मुखम् ॥१४॥ सन् पुररणत्कारचरणन्यासकुट्टनैः । नृत्यन्तीभिः पुरस्त्रीभिः कृतभूतलकम्पनम् ॥ १५ ॥
अथानन्तर रथनूपुर नगरमें अत्यन्त पराक्रमका धारी राजा सहस्रार राज्य करता था ॥१॥ उसकी मानससुन्दरी नामक प्रिय स्त्री थी । मानससुन्दरी मन तथा शरीर दोनोंसे ही सुन्दर थी और अनेक उत्तमोत्तम गुणोंसे युक्त थी ||२|| वह गर्भिणी हुई । गर्भके कारण उसका समस्त शरीर कृश हो गया और समस्त आभूषण शिथिल पड़ गये । उसे बड़े आदर के साथ देखकर राजा सहस्रार ने पूछा कि हे प्रिये ! तेरे अंग अत्यन्त कृशताको क्यों धारण कर रहे हैं? तेरी क्या अभिलाषा है ? जो मेरे राज्य में दुर्लभ हो ॥३-४ || हे प्राणोंसे अधिक प्यारी देवि ! कह तेरी क्या अभिलाषा है ? मैं आज ही उसे अच्छी तरह पूर्ण करूँगा ||५|| हे कान्ते ! देवांगनाओंपर शासन करनेवाली इन्द्राणीको भी मैं ऐसा करनेमें समर्थ हूँ कि वह अपनी हथेलियोंसे तेरे पादमर्दन करे ||६|| पतिके ऐसा कहनेपर उसकी सुन्दर गोदमें बैठी मानससुन्दरी, विनय से लीलापूर्वक इस प्रकार
वचन बोली ||७|| हे नाथ ! जबसे यह कोई बालक मेरे गर्भमें आया है तभीसे इन्द्रकी सम्पदा भोगनेकी मेरी इच्छा है || ८|| हे स्वामिन्! अत्यन्त विवशता के कारण ही मैंने लज्जा छोड़कर ये मनोरथ आपके लिए प्रकट किये हैं || ९ || वल्लभा के ऐसा कहते ही विद्याबलसे समृद्ध सहस्रारने तत्क्षण ही उसके लिए इन्द्र जैसो भोग सम्पदा तैयार कर दी ||१०|| इस प्रकार दोहद पूर्ण होनेसे उसका समस्त शरीर पुष्ट हो गया और वह कहने में न आवे ऐसी दीप्ति तथा कान्ति धारण करने लगी ॥ ११ ॥ उसका इतना तेज बढ़ा कि वह ऊपर आकाशमें जाते हुए सूर्यसे भी खिन्न हो उठती थी तथा समस्त दिशाओंको आज्ञा देनेकी उसकी इच्छा होती थी || १२ || समय पूर्ण होनेपर उसने, जिसका शरीर समस्त लक्षणोंसे युक्त था तथा जो बान्धवजनों के हर्ष और सम्पदाका उत्तम कारण था ऐसा पुत्र उत्पन्न किया || १३|| तदनन्तर हर्षसे भरे सहस्रारने पुत्र जन्मका महान् उत्सव किया। उस समय शंख और तुरहीके शब्दोंसे दिशाएँ बहिरी हो गयी थीं || १४ || नगरकी स्त्रियाँ नृत्य करते
१. दोहला ख. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org