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षष्ठं पर्व
दृष्ट्वा माली 'शितैर्बाणैः कृत्वा स्यन्दनवर्जितम् । निर्घातमसिनिर्घाताच्चक्रे संप्राप्तपञ्चर्तम् ॥५६०॥ निर्घातं निहतं ज्ञात्वा दानवा भ्रष्टचेतसः । यथास्वं निलयं याता विजयार्द्धनगाश्रितम् ||५६१।। चिकण्ठे समासाद्य कृपाणं कृपणोद्यताः । मालिनं त्वरया याताः शरणं रणकातराः ||५६२ ।। प्रविष्टास्ते ततो लङ्कां भ्रातरो मङ्गलाचितम् | समागमं च संप्राप्ताः पितृप्रभृतिबान्धवैः ।।५६३ ।। ततो हेमपुरेशस्य सुतां हेमखचारिणः । भोगवत्यां समुत्पन्नां नाम्ना चन्द्रवतीं शुभाम् ॥५६४॥ उवाह विधिना भाली मानसोत्सवकारिणीम् । स्वभावचपलस्वान्तहृषीकमृगवागुराम् ॥ ५६५॥ प्रीति कूटपुरेशस्य प्रीतिकान्तस्य चात्मजाम् । प्रीतिमत्यङ्गजां लेभे सुमाली प्रीतिसंज्ञिताम् ||५६६॥ कनकाभपुरेशस्य कनकस्य सुतां यथा । उवाह कनकश्रीजां माल्यवान् कनकावलीम् ॥५६७॥ एतेषां प्रथमा जाया एता हृदयसंश्रयाः । अङ्गनानां सहस्त्रं तु प्रत्येकमधिकं स्मृतम् ||५६८ ॥ श्रेणीद्वयं ततस्तेषां पराक्रमवशीकृतम् । शेषामिव बभाराज्ञां शिरसा रचिताञ्जलिम् ||५६९|| दृढबद्धपदापत्यनियुक्त निजसंपदौ । जातौ सुकेश किष्किन्धौ निर्ग्रन्थौ शान्तचेतसौ ॥५७० ॥
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मन्दाक्रान्ताच्छन्दः
भुक्त्वा भुक्त्वा विषयजनितं सौख्यमेवं महान्तो
लब्ध्वा जैनं भवशत मलध्वंसनं मुक्तिमार्गम् । याताः प्रायः प्रियजनगुणस्नेहपाशादपेताः
सिद्धिस्थानं निरुपमसुखं राक्षसा वानराश्च ॥ ५७१॥
माली आगे बढ़ रहा था || ५५९ || अन्तमें मालीने निर्घातको देखकर पहले तो उसे तीक्ष्ण बाणोंसे रथरहित किया और फिर तलवारके प्रहारसे उसे समाप्त कर दिया || ५६०|| निर्घातको मरा जानकर जिनका चित्त भ्रष्ट हो गया था ऐसे दानव विजयार्ध पर्वतपर स्थित अपने-अपने भवनों में चले गये || ५६१ ॥ युद्धसे डरनेवाले कितने ही दीन-हीन दानव कण्ठमें तलवार लटकाकर शीघ्र ही मालीकी शरण में पहुँचे || ५६२|| तदनन्तर माली आदि तीनों भाइयोंने मंगलमय पदार्थोंसे सुशोभित लंकानगरी में प्रवेश किया। वहीं माता-पिता आदि इष्ट जनोंके साथ समागमको प्राप्त हुए ॥५६३ ॥
तदनन्तर हेमपुरके राजा हेमविद्याधरकी भोगवती रानीसे उत्पन्न चन्द्रवती नामक शुभ पुत्रीको मालीने विधिपूर्वक विवाहा । चन्द्रवती मालीके मनमें आनन्द उत्पन्न करनेवाली थी तथा स्वभाव से ही चपल मन और इन्द्रियरूपी मृगों को बाँधने के लिए जालके समान थी । ५६४ - ५६५॥ प्रीतिकूटपुर के स्वामी राजा प्रीतिकान्त और रानी प्रीतिमतीकी पुत्री प्रीतिको सुमालीने प्राप्त किया ||५६६|| कनकाभनगरके स्वामी राजा कनक और रानी कनकनीकी पुत्री कनकावलीको माल्यवान्
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विवाहा ॥५६७ || सदा हृदय में निवास करनेवाली ये इनकी प्रथम स्त्रियाँ थीं वैसे प्रत्येक की कुछ अधिक एक-एक हजार स्त्रियाँ थीं ||५६८|| तदनन्तर विजयार्धं पर्वतकी दोनों श्रेणियाँ उनके पराक्रम से वशीभूत हो शेषाक्षतके समान उनकी आज्ञाको हाथ जोड़कर शिरसे धारण करने लगीं ||५६९|| अन्तमें अपने-अपने पदोंपर अच्छी तरह आरूढ़ पुत्रोंके लिए अपनी-अपनी सम्पदा सौंपकर सुकेश और किष्किन्ध शान्त चित्त हो निर्ग्रन्थ साधु हो गये ।। ५७० || इस प्रकार प्रायः कितने ही बड़ेबड़े राक्षसवंशी और वानरवंशी राजा विषय सम्बन्धी सुखका उपभोग कर अन्तमें संसार के सैकड़ों दोषों को नष्ट करनेवाला जिनेन्द्र प्रणीत मोक्ष मार्गं पाकर, प्रियजनोंके गुणोत्पन्न स्नेह रूपी बन्धन से
१. सितै म । २. पञ्चताम् म. । ३. प्रीतिका तस्य म. । ४. प्रथमं म. ।
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