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षष्ट पर्व
१३३
एकदोत्थाय बलिवत्पातालनगरोदरात् । सवनक्ष्माधरं पश्यन् शनैरवनिमण्डलम् ॥५०६॥ विदित्वोपशमप्राप्तान् शत्रुन् भयविवर्जितः । सश्रीमालो गतो मेरुं किष्किन्धो वन्दितुं जिनम् ॥५०७॥ प्रत्यागच्छंस्ततोऽपश्यद्दक्षिणोदन्वतस्तटे । अटवीं सुरकुर्वामां पृथ्वीकर्णतटाभिधाम् ॥५०८॥ श्रीमालां चाब्रवीदेवं वीणामिव सुखस्वराम् । वक्षःस्थलस्थितां वामबाहुना कृतधारणाम् ॥५०९॥ देवि पश्याटवीं रम्यां कुसुमाञ्चितपादपाम् । सीमन्तिनीमिव स्वच्छमन्दगत्यापगाम्भसाम् ॥५१०॥ शरजलधराकारो राजतेऽयं महीधरः । मध्येऽस्याः शिखरैस्तुङ्गैर्धरणीमौलिसंज्ञितः॥५११॥ कुन्दशुभ्रसमावर्तफेनमण्डलमण्डितैः । निर्झरहसतावायमट्टहासेन भासुरः ॥५१२।। पुष्पाञ्जलिं प्रकीर्यायं तरुशाखाभिरादरात् । अभ्युत्थानं करोतीव चलत्तरुवनेन नौ ॥५१३॥ पुष्पामोदसमृद्धेन वायुना घ्राणलेपिना । प्रत्युद्गतिं करोतीव नमनं च नमत्तरुः ॥५१४॥ बध्वेव कृतवान् गाढं वजन्तं मामयं गुणः। अतिक्रम्य न शक्नोमि गन्तुमेनं महीधरम् ॥५१५॥ आलयं कल्पयाम्यत्र भूचररतिदुर्गमम् । प्रसाद मानसं गच्छत्सूचयत्येव मे शुभम् ॥५१६॥ अलङ्कारपुरावासे पातालोदरवर्तिनि । खिन्नं खिन्नं मम स्वान्तं रतिमत्र प्रयास्यति ॥५१७॥ इत्युक्त्वानुमतालापः प्रियया विस्मयाकुलः । उत्सारयन् घनवातमवतीर्णो धराधरम् ॥५१८॥
महाविद्या और महापराक्रमका धारी निर्घात नामका विद्याधर लंकाका शासन करता था ॥५०५।। एक दिन किष्किन्ध बलिके समान पातालवर्ती अलंकारपुर नगरसे निकलकर वन तथा पर्वतोंसे सुशोभित पृथिवीमण्डलका धीरे-धीरे अवलोकन कर रहा था। इसी अवसरपर उसे पता चला कि शत्रु शान्त हो चुके हैं। यह जानकर वह निर्भय हो अपनी श्रीमाला रानीके साथ जिनेन्द्रदेवकी वन्दना करनेके लिए सुमेरु पर्वतपर गया ।।५०६-५०७॥ वन्दना कर वापस लौटते समय उसने दक्षिणसमुद्रके तटपर पृथिवी-कर्णतटा नामकी अटवी देखी। यह अटवी देवकुरुके समान सुन्दर थी ।।५०८।। किष्किन्धने, जिसका स्वर वीणाके समान सुखदायी था, जो वक्षःस्थलसे सटकर बैठी थी और बायीं भुजासे अपनेको पकड़े थी ऐसी रानी श्रीमालासे कहा ॥५०९।। कि हे देवि ! देखो, यह अटवी कितनी सुन्दर है, यहाँके वृक्ष फूलोंसे सुशोभित हैं, तथा नदियोंके जलकी स्वच्छ एवं मन्द गतिसे ऐसी जान पड़ती है मानो इसने सीमन्त-माँग ही निकाल रखी हो ।।५१०।। इसके बीच में यह शरऋतुके मेघका आकार धारण करनेवाला तथा ऊंची-ऊँची शिखरोंसे सुशोभित धरणीमौलि नामका पर्वत सुशोभित हो रहा है ।।५११॥ कुन्दके फूलके समान शुक्ल फेनपटलसे मण्डित निर्झरनोंसे यह देदीप्यमान पर्वत ऐसा जान पड़ता है मानो अट्टहास हो कर रहा हो ।।५१२।। यह वृक्षकी शाखाओंसे आदरपूर्वक पुष्पांजलि बिखेरकर वायुकम्पित वृक्षोंके वनसे हम दोनोंको आता देख आदरसे मानो उठ ही रहा है ।।५१३।। फूलोंकी सुगन्धिसे समृद्ध तथा नासिकाको लिप्त करनेवाली वायुसे यह पर्वत मानो हमारी अगवानी ही कर रहा है तथा झुकते हुए वृक्षोंसे ऐसा जान पड़ता है मानो हम लोगोंको नमस्कार ही कर रहा है ।।५१४॥ ऐसा जान पड़ता है कि आगे जाते हुए मुझे इस पर्वतने अपने गुणोंसे मजबूत बाँधकर रोक लिया है इसीलिए तो मैं इसे लांघकर आगे जानेके लिए समर्थ नहीं हूँ ॥५१५।। मैं यहाँ भूमिगोचरियोंके अगोचर सुन्दर महल बनवाता हूँ। इस समय चूंकि मेरा मन अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है इसलिए वह आगामी शुभकी सूचना देता है ।।५१६।। पातालके बीचमें स्थित अलंकारपुरमें रहते-रहते मेरा मन्न खिन्न हो गया है सो यहाँ अवश्य ही प्रीतिको प्राप्त होगा ॥५१७।। प्रिया श्रीमालाने किष्किन्धके इस कथनका समर्थन किया तब आश्चर्यसे भरा किष्किन्ध मेघसमूहको चीरता हुआ पर्वतपर १. स्वस्थ ख. । २. आवयोः । ३. ख. पुस्तके अत्र 'स्थापयत्वेव निभ्रान्तः प्रीति तद्गतचेतसा' इत्यधिकः पाठः । ४. मेतुं म.।
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