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पद्मपुराणे तस्मादुत्तिष्ठ गच्छामस्तत्पुरं रिपुदुर्गमम् । अनयो हि महानेष यत्कालस्य ने यापनम् ॥४९२॥ एवमन्विष्य 'नो शोको यदा तीव्रो निवर्तते । श्रीमालादर्शनादस्य ततोऽसौ विनिवर्तिनः ॥४९३॥ ततस्तौ परिवर्गेण समस्तेन समन्वितौ । प्रस्थिती दर्शनं प्राप्तौ विद्युद्वाहनविद्विषः ॥४९४॥ ततोऽसौ पृष्टतो गन्तं प्रवृत्तो धावतोस्तयोः । भ्रातृघातेन संक्रुद्धः शत्रुनिर्मूलनोद्यतः ॥४९५॥ भग्नाः किलानुसतव्याः शत्रवो नेति माषितम् । नीतिशास्त्रशरीरज्ञः पुरुषैः शुद्धबुद्धिभिः ।।४९६॥ निहतश्च तव भ्राता येन पापेन वैरिणा । प्रापितोऽसौ महानिद्रां विशिखैरन्ध्रको मया ॥४९७।। तस्मात्पुत्र निवर्तस्व नैतेऽस्माकं कृतागसः । अनुकम्पा हि कर्तव्या महता दुःखिते जने ॥४९८।। पृष्टस्य दर्शनं येन कारितं कातरात्मना । जीवन्मृतस्य तस्यान्यक्रियतां किं मनस्विना ॥४९९॥ यावदेवं सुतं शास्ति वज्रवेगो वशस्थितिम् । अलङ्कारपुरं प्राप्तास्तावद्वानरराक्षसाः ॥५००॥ पातालावस्थिते तत्र रत्नालोकचिते पुरे । तस्थुः शोक प्रमोदं च वहन्तो भयवर्जिताः ॥५०१॥ अन्यदाशनिवेगोऽथ दृष्ट्वा शरदि तोयदम् । क्षणाद्विलयमायातं विरक्को राज्यसंपदि ।।५०२॥ सुखं विषययोगेन विज्ञाय क्षणभङ्गरम् । मनुष्यजन्म चात्यन्तदुर्लभं भवसंकटे ।।५०३।। सहस्त्रारं सुतं राज्य स्थापयित्वा विधानतः। समं विद्युत्कुमारेण बभूव श्रमणो महान् ॥५०४॥ शशासात्रान्तरे लङ्कां निर्घातो नाम खेचरः । नियुक्तोऽशनिवेगेन महाविद्यापराक्रमः ॥५०५।।
नहीं करता ।।४९१।। इसलिए उठो हम लोग शीघ्र ही शत्रुओंके द्वारा अगम्य उस अलंकारपुर नगरमें चलें। इस स्थितिमें यदि वहाँ जाकर संकटका समय नहीं निकाला जाता है तो यह बड़ी अनीति होगी ॥४९२।। इस प्रकार लंकाके राजा सुकेशने किष्किन्धको बहुत समझाया पर उसका शोक दूर नहीं हुआ। अन्तमें रानी श्रीमालाके देखनेसे उसका शोक दूर हो गया ॥४९३।। तदनन्तर राजा किष्किन्ध और सुकेश अपने समस्त परिवारके साथ अलंकारपुरकी ओर चले परन्तु विद्युद्वाहन शत्रुने उन्हें देख लिया ॥४२४|| वह भाई विजयसिंहके घातसे अत्यन्त क्रुद्ध था तथा शत्रुका निर्मूल नाश करने में सदा उद्यत रहता था इसलिए भागते हुए सुकेश और किष्किन्धके पीछे लग गया ॥४९५।। यह देख नीतिशास्त्रके मर्मज्ञ तथा शुद्ध बुद्धिको धारण करनेवाले पुरुषोंने विद्युद्वाहनको समझाया कि भागते हुए शत्रुओंका पीछा नहीं करना चाहिए ।।४९६।। पिता अशनिवेगने भी उससे कहा कि जिस पापी वैरीने तुम्हारे भाई विजयसिंहको मारा था उस अन्ध्रकको मैंने बाणोंके द्वारा महानिद्रा प्राप्त करा दी है अर्थात् मार डाला है ॥४९७।। इसलिए हे पुत्र! लौटो, ये हमारे अपराधी नहीं हैं। महापुरुषको दुःखी जनपर दया करनी चाहिए ॥४९८॥ जिस भीरु मनुष्यने अपनी पीठ दिखा दी वह तो जीवित रहनेपर भी मृतकके समान है, तेजस्वी मनुष्य भला उसका और क्या करेंगे ।।४९९।। इधर इस प्रकार अशनिवेग जबतक पूत्रको अपने अधीन रहनेका उपदेश देता है उधर तबतक वानर और राक्षस अलंकारपुर (पाताललंका) में पहुँच गये ।५००|| वह नगर पातालमें स्थित था तथा रत्नोंके प्रकाशसे व्याप्त था सो उस नगरमें वे दोनों शोक तथा हर्षको धारण करते हुए रहने लगे ।।५०१॥
____ अथानन्तर एक दिन अशनिवेग शरदऋतुके मेघको क्षणभरमें विलीन होता देख राज्यसम्पदासे विरक्त हो गया ॥५०२॥ विषयोंके संयोगसे जो सुख होता है वह क्षणभंगुर है तथा चौरासी लाख योनियोंके संकटमें मनुष्य जन्म पाना अत्यन्त दुर्लभ है ।।५०३।। ऐसा जानकर उसने सहस्रार नामक पुत्रको तो विधिपूर्वक राज्य दिया और स्वयं विद्युत्कुमारके साथ वह महाश्रमण अर्थात् निर्ग्रन्थ साधु हो गया ॥५०४। इस अन्तरालमें अशनिवेगके द्वारा नियुक्त
१. स्यातिपातनम् म. । २. नः ख. ।
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