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पद्मपुराणे ततोऽसौ पतितो बालः क्षितौ तेजोविवर्जितः । प्रत्यूषशशिनश्छायां बभार गतचेतनः ॥४६५॥ किष्किन्धेनापि निक्षिप्ता विद्युद्वाहनवक्षसि । शिला स ताडितो मूछां प्राप्य बोधं पुनर्गतः ॥४६६॥ आदाय तां शिलां तेन ततो वक्षसि ताडितः । किष्किन्धोऽपि गतो मूछां घूर्णितेक्षणमानसः ॥४६७॥ लकेन्द्रेण ततो नीतः प्रेमसंसक्तचेतसा । किष्कु प्रमादमुरिक्षप्य चिरात् प्राप्तश्च चेतनाम् ॥४६८॥ उन्मील्य स ततो नेत्रे यदा नापश्यदन्ध्रकम् । तदापृच्छन्मम भ्राता वर्तते क्वेति पार्श्वगान ॥४६९॥ ततः प्रलयवातेन क्षोभितस्याम्बुधेः समम् । शुश्रावान्तःपुराक्रन्दमन्ध्रकध्वंसहेतुकम् ॥४७०॥ विग्रलापं ततश्चक्रे प्रतप्तः शोकवह्निना। चिरं भ्रातृगुणध्यानकृतदुःखोर्मिसंततिः ॥१७॥ हा भ्रातर्मयि सत्येवं कथं प्राप्तोऽसि पञ्चताम् । दक्षिणः पतितो बाहुस्त्वयि मे पातमागते ॥४७२॥ दुरात्मना कथं तेन पापेन विनिपातितम् । शस्त्रं बाले त्वयि र धिक तमन्यायवर्तिनम् ॥४७३॥ अपश्यन्नाकुलोऽभूवं यो भवन्तं निमेषतः । सोऽहं वद कथं प्राणान् धारयिष्यामि सांप्रतम् ॥४७४॥ अथवा निर्मितं चेतो वज्रेण मम दारुणम् । यज्ज्ञात्वापि भवन्मृत्युं शरीरं न विमुञ्चति ॥४७५॥ बाल ते स्मितसंयुक्तं वीरगोष्टीसमुद्भवम् । स्मरन् स्फुटसमुल्लासं दुःखं प्राप्नोमि दुःसहम् ॥४७६॥ यद्यद्विचेष्टितं साई क्रियमाणं त्वया पुरा । प्रसेकममृतेनेव कृतवत्सर्वगात्रकम् ॥४७७॥
स्मर्यमाणं तदेवेदमधुना मरणं कथम् । प्रयच्छति विषेणेव सेकं मर्मविदारणम् ।।४७८॥ मार डाला ॥४६४॥ तदनन्तर बालक अन्ध्रक, तेजरहित पृथिवीपर गिर पड़ा और निष्प्राण हो प्रातःकालके चन्द्रमाकी कान्तिको धारण करने लगा अर्थात प्रातःकालीन चन्द्रमाके समान कान्तिहीन हो गया ॥४६५॥ इधर किष्किन्धने एक शिला विद्युद्वाहनके वक्षःस्थलपर फेंकी जिससे तडित् हो वह मच्छित हो गया परन्तु कुछ ही समयमें सचेत होकर उसने वही शिला किष्किन्धके वक्षःस्थलपर फेंकी जिससे वह भी मूर्छाको प्राप्त हो गया। उस समय शिलाके आघातसे उसके नेत्र तथा मन दोनों ही घूम रहे थे ॥४६६-४६७।। तदनन्तर प्रेमसे जिसका चित्त भर रहा था ऐसा लंकाका राजा सुकेश उसे प्रमाद छोड़कर शीघ्र ही किष्कपुर ले गया। वहाँ चिरकालके बाद उसे चेतना प्राप्त हुई ॥४६८।। जब उसने आँखें खोली और सामने अन्ध्रक को नहीं देखा तब समीपवर्ती लोगोंसे पूछा कि हमारा भाई कहाँ है ? ॥४६९।। उसी समय उसने प्रलयकी वायुसे क्षोभित समुद्रके समान, अन्ध्रककी मृत्युसे उत्पन्न अन्तःपुरके रोनेका शब्द सुना ।।४७०॥ तदनन्तर जिसके हृदयमें भाईके गुणोंके चिन्तवनसे उत्पन्न दुःखकी लहरें उठ रही थीं ऐसा किष्किन्ध शोकाग्निसे सन्तप्त हो चिरकाल तक विलाप करता रहा ।।४७१।। हे भाई ! मेरे रहते हुए तू मृत्युको कैसे प्राप्त हो गया ? तेरे मरनेसे मेरी दाहिनी भुजा ही भंगको प्राप्त हुई ॥४७२॥ उस पापी दुष्टने तुझ बालकपर शस्त्र कैसे चलाया ? अन्यायमें प्रवृत्ति करनेवाले उस दुष्टको धिक्कार है ॥४७३।। जो तुझे निमेष मात्र भी नहीं देखता था तो आकुल हो जाता था वही मैं अब प्राणोंको किस प्रकार धारण करूँगा सो कह ॥४७४॥ अथवा मेरा कठोर चित्त वज्रसे निर्मित है इसीलिए तो वह तेरी मृत्यु जानकर भी शरीर नहीं छोड़ रहा है ।।४७५।।
हे बालक ! मन्द-मन्द मुसकानसे युक्त, वीर पुरुषोंको गोष्ठीमें समुत्पन्न जो तेरा प्रकट हर्षोल्लास था उसका स्मरण करता हुआ मैं दुःसह दुःख प्राप्त कर रहा हूँ ।।४७६।। पहले तेरे साथ जो-जो चेठाएँ-कौतुक आदि किये थे वे समस्त शरीरमें मानो अमृतका ही सिंचन करते थे ॥४७७॥ पर आज वे ही सब स्मरणमें आते ही विषके सिंचनके समान मर्मघातक मरण क्यों प्रदान कर रहे हैं अर्थात् जो पहले अमृतके समान सुखदायी थे वे ही आज विषके समान १. किष्कु प्रमोद, -ख., म. । किष्कुः ज., ग. ।
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