________________
चतुर्थ प रक्षितं यस्य यक्षाणां सहस्रेण प्रयत्नतः । सर्वेन्द्रियसुखं रत्नं सुभद्राख्यं व्यराजत ॥८३॥ पञ्च पुत्रशतान्यस्य यैरिदं भरताह्वयम् । क्षेत्रं विभागतो भुक्तं पित्रा दत्तमकण्टकम् ॥८४॥ अथैवं कथितं तेन गौतमेन महात्मना । श्रेणिकः पुनरप्याह वाक्यमेतत्कुतूहली ॥८५॥ वर्णत्रयस्य भगवन्संभवो मे त्वयोदितः । उत्पत्तिं सूत्रकण्ठानां ज्ञातुमिच्छामि सांप्रतम् ॥८६॥ प्राणिघातादिकं कृत्वा कर्म साधुजुगुप्सितम् । परं वहन्त्यमी गवं धर्मप्राप्तिनिमित्तकम् ॥८७॥ तदेषां विपरीतानामुत्पत्तिं वक्तुमर्हसि । कथं चैषां गृहस्थानां भक्तो लोकः प्रवर्तते ॥८८॥ एवं पृष्टो गणेशोऽसाविदं वचनमब्रवीत् । कृपाङ्गनापरिष्वक्तहृदयो हतमत्सरः ॥ ८९ ॥ श्रेणिक श्रूयतामेषा यथाजातसमुद्भवः । विपरीतप्रवृत्तीनां मोहावष्टब्धचेतसाम् ॥ ९० ॥ साकेतनगरासने प्रदेशे प्रथमो जिनः । आसाञ्चक्रेऽन्यदा देवतिर्यग्मानववेष्टितः ॥९१॥ ज्ञात्वा तं भरतस्तुष्टो प्राहयित्वा सुसंस्कृतम् । अन्नं जगाम यत्यर्थं बहुभेदप्रकल्पितम् ॥९२॥ प्रणम्य च जिनं भक्त्या समस्तांश्च दिगम्बरान् । भूमौ करद्वयं कृत्वा वाणीमेतामभाषत ॥ ९३ ॥ प्रसादं भगवन्तो मे कर्तुमर्हथ याचिताः । प्रतीच्छत मया भिक्षां शोभनामुपपादिताम् ॥९४॥ इत्युक्ते भगवानाह भरतेयं न कल्पते । साधूनामीदृशी भिक्षा या तदुद्देशसंस्कृता ॥९५॥
इन्द्र स्वर्ग में अपने शुभकर्मका फल भोगता है उसी प्रकार भरत चक्रवर्ती भी एकछत्र पृथिवीपर अपने शुभकर्मका फल भोगता था || ८२|| एक हजार यक्ष प्रयत्नपूर्वक जिसकी रक्षा करते थे ऐसा समस्त इन्द्रियों को सुख देनेवाला उसका सुभद्रा नामक स्त्रीरत्न अतिशय शोभायमान था ॥ ८३ ॥ भरत चक्रवर्तीके पाँच सौ पुत्र थे जो पिताके द्वारा विभाग कर दिये हुए निष्कण्टक भरत क्षेत्रका उपभोग करते थे ||८४॥ इस प्रकार महात्मा गौतम गणधरने भगवान् ऋषभदेव तथा उनके पुत्र और पौत्रोंका वर्णन किया जिसे सुनकर कुतूहलसे भरे हुए राजा श्रेणिकने फिरसे यह कहा ||८५ || हे भगवन् ! आपने मेरे लिए क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्णों की उत्पत्ति तो कही अब मैं इस समय ब्राह्मणों की उत्पत्ति और जानना चाहता हूँ || ८६ ॥ ये लोग धर्मप्राप्तिके निमित्त, सज्जनोंके द्वारा निन्दित प्राणिहिंसा आदि कार्य कर बहुत भारी गर्वको धारण करते हैं ॥८७॥ इसलिए आप इन विपरीत प्रवृत्ति करनेवालों की उत्पत्ति कहनेके योग्य हैं। साथ ही यह भी बतलाइए कि इन गृहस्थ ब्राह्मणों के लोग भक्त कैसे हो जाते हैं ? ||८८ || इस प्रकार दयारूपी स्त्री जिनके हृदयका आलिंगन कर रही थी तथा मत्सर भावको जिन्होंने नष्ट कर दिया था ऐसे गौतम गणधर ने राजा श्रेणिक के पूछनेपर निम्नांकित वचन कहे ||८९|| हे श्रेणिक ! जिनका हृदय मोहसे आक्रान्त है और इसीलिए जो विपरीत प्रवृत्ति कर रहे हैं ऐसे इन ब्राह्मणों की उत्पत्ति जिस प्रकार हुई वह मैं कहता हूँ तू सुन ||२०||
एक बार अयोध्या नगरीके समीपवर्ती प्रदेश में देव, मनुष्य तथा तिर्यंचोंसे वेष्टित भगवान् ऋषभदेव आकर विराजमान हुए । उन्हें आया जानकर राजा भरत बहुत ही सन्तुष्ट हुआ और मुनियों के उद्देश्य से बनवाया हुआ नाना प्रकारका उत्तमोत्तम भोजन नौकरोंसे लिवाकर भगवान् के पास पहुँचा । वहाँ जाकर उसने भक्तिपूर्वक भगवान् ऋषभदेवको तथा अन्य समस्त मुनियोंको नमस्कार किया और पृथ्वीपर दोनों हाथ टेककर यह वचन कहे ||९१-९३ ।। हे भगवन् ! मैं याचना करता हूँ कि आप लोग मुझपर प्रसन्न होइए और मेरे द्वारा तैयार करायी हुई यह उत्तमोत्तम भिक्षा ग्रहण कीजिए | || ९४ || भरतके ऐसा कहनेपर भगवान्ने कहा कि हे भरत ! जो भिक्षा मुनियोंके उद्देश्यसे तैयार की जाती है वह उनके योग्य नहीं है - मुनिजन उद्दिष्ट भोजन ग्रहण नहीं
१. विराजते म. । २. हृदयोद्गतमत्सरः म । ३. भ्रमौ म । ४. प्रभाषत म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org