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पद्मपुराणे
सन्त्यत्र लवणाम्भोधावत्युग्रग्राहसंकटे । अत्यन्तदुर्गमा रम्या 'महाद्वीपाः सहस्रशः ॥ १५२ ॥ कचित् क्रीडन्ति गन्धर्वाः किन्नराणां क्वचिद् गणाः । क्वचिच्च यक्षसंघाताः क्वचिकिंपुरुषामराः ॥ १५३ ॥ तत्र मध्येऽस्ति स द्वीपो रक्षसां क्रीडनः शुभः । योजनानां शतान्येष सर्वतः सप्त कीर्तितः ॥ १५४॥ तन्मध्ये मेरुवद् माति त्रिकूटाख्यो महागिरिः । अत्यन्तदुःप्रवेशो यः शरण्यः सद्गुहागृहैः ॥ १५५॥ शिखरं तस्य शैलेन्द्रचूडाकारं मनोहरम् । योजनानि नवोत्तुङ्गं पञ्चाशद्विपुलत्वतः ॥ १५६॥ नानारत्नप्रभाजालच्छन्न हेममहातटम् । चित्रवल्लीपरिष्वक्तकल्पद्रुमसमाकुलम् ॥१५७॥ त्रिंशद्योजनमानाधः सर्वतस्तस्य राक्षसी । लङ्केति नगरी भाति रत्नजाम्बूनदालया ॥ १५८॥ मनोहारिभिरुद्यानैः सरोभिश्च सवारिजैः । महद्भिश्चैत्य गेहैश्च सा महेन्द्रपुरीसमा ॥१५९॥ गच्छतां दक्षिणाशायां मण्डनत्वमुपागताम् । समं बान्धववर्गेण विद्याधर सुखी भव ॥ १६०॥ एवमुक्त्वा ददावस्मै हारं राक्षसपुङ्गवः । देवताधिष्ठितं ज्योत्स्नां कुर्वाणं करकोटिभिः ॥१६१ ॥ जन्मान्तरसुतप्रीत्या भीमश्चैवं तमब्रवीत् । हारोऽयं तेऽन्त्यदेहस्य युगश्रेष्ठस्य चोदितः ॥ १६२॥ धरण्यन्तर्गतं चान्यद्दत्तं स्वाभाविकं पुरम् । विस्तीर्ण भरतार्द्धार्धमधः षड्योजनीगतम् ॥१६३॥ दुःप्रवेशमरातीनां मनसापि महद्गृहम् । अलंकारोदयाभिख्यं स्वर्गतुल्यमभिख्यया ॥१६४॥ परचक्रसमाक्रान्तः कदाचिच्चेद्भवेरसिम् | आश्रित्य तत्तदा तिष्ठे रहस्यं वंशसंततेः ॥ १६५ ॥ बहुत भारी मगरमच्छों से भरे हुए इस लवणसमुद्र में अत्यन्त दुर्गम्य तथा अतिशय सुन्दर हजारों महाद्वीप हैं || १५२ ॥ उन महाद्वीपोंमें कहीं गन्धर्व, कहीं किन्नरोंके समूह, कहीं यक्षों के झुण्ड और कहीं किंपुरुषदेव क्रीड़ा करते हैं || १५३ || उन द्वीपोंके बीच एक ऐसा द्वीप है जो राक्षसोंकी शुभ क्रीड़ाका स्थान होनेसे राक्षस द्वीप कहलाता है और सात सौ योजन लम्बा तथा उतना ही चौड़ा है ।।१५४।। उस राक्षस द्वीपके मध्य में मेरु पर्वत के समान त्रिकूटाचल नामक विशाल पर्वत है । वह पर्वत अत्यन्त दुःप्रवेश है और उत्तमोत्तम गुहारूपी गृहोंसे सबको शरण देनेवाला है || १५५ ॥ उसकी शिखर सुमेरु पर्वत की चूलिकाके समान महामनोहर है, वह नौ योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है || १५६ | | उसके सुवर्णमय किनारे नाना प्रकार के रत्नोंकी कान्तिके समूह से सदा आच्छादित रहते हैं तथा नाना प्रकारकी लताओंसे आलिंगित कल्पवृक्ष वहाँ संकीर्णता करते रहते हैं || १५७॥ उस त्रिकूटाचल के नीचे तीस योजन विस्तारवाली लंका नगरी है, उसमें राक्षस वंशियोंका निवास है, और उसके महल नाना प्रकारके रत्नों एवं सुवर्णसे निर्मित हैं ॥ १५८ ॥ मनको हरण करनेवाले बागबगीचों, कमलोंसे सुशोभित सरोवरों और बड़े-बड़े जिन-मन्दिरोंसे वह नगरी इन्द्रपुरी के समान जान पड़ती है || १५९ ॥ वह लंका नगरी दक्षिण दिशाकी मानो आभूषण ही है । हे विद्याधर ! तू अपने बन्धुवर्ग के साथ उस नगरीमें जा और सुखी हो ॥ १६०॥ ऐसा कहकर राक्षसोंके इन्द्र भीमने उसे देवाधिष्ठित एक हार दिया। वह हार अपनी करोड़ों किरणोंसे चाँदनी उत्पन्न कर रहा था ॥१६१॥ जन्मान्तर सम्बन्धी पुत्रकी प्रीतिके कारण उसने वह हार दिया था और कहा था कि हे विद्याधर ! तू चरमशरीरी तथा युगका श्रेष्ठ पुरुष है इसलिए तुझे यह हार दिया है || १६२ || उस हारके सिवाय उसने पृथ्वोके भीतर छिपा हुआ एक ऐसा प्राकृतिक नगर भी दिया जो छह योजन गहरा तथा एक सौ साढ़े इकतीस योजन और डेढ़ कलाप्रमाण चौड़ा था || १६३ | | उस नगर में शत्रुओंका शरीर द्वारा प्रवेश करना तो दूर रहा मनसे भी प्रवेश करना अशक्य था । उसमें बड़े-बड़े महल थे, अलंकारोदय उसका नाम था और शोभासे वह स्वर्गके समान जान पड़ता था || १६४ || यदि तुझपर कदाचित् परचक्रका आक्रमण हो तो इस नगर में खड्गका आश्रय ले सुख से रहना । यह तेरी वंश-परम्पराके लिए रहस्य-सुरक्षित स्थान है || १६५ || इस प्रकार राक्षसोंके इन्द्र भीम १. मही द्वीपा : म । २. शरणः म । ३. लयाः म । ४. रसि म., क. ।
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