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षष्ठं पर्व
१०१
श्रीकण्ठममिधायैवं सचिव निजमब्रवीत् । पितामहक्रमायातमानन्दाख्यं महामतिम् ॥५८॥ सारासारं त्वया दृष्टं मदीयानां चिरं पुराम् । उपदिश्यतामतः सार श्रीकण्ठायात्र यत्पुरम् ॥५९॥ इत्युक्तः सचिवः प्राह सितेन हृदयस्थितम् । कूर्चेन स्वामिनं भक्त्या चामरेणेव बीजयन् ॥६०॥ नरेन्द्र तव नास्त्येव पुरं यन्न मनोहरम् । तथापि स्वयमन्विष्य गृह्णातु रुचिदर्शनम् ॥६१॥ मध्ये सागरमेतस्मिन् द्वीपाः सन्त्यतिभूरयः । कल्पद्रुमसमाकारैः पादपैाप्तदिङ्मुखाः ॥६२॥ आचिता विविधै रत्नैस्तुङ्गशृङ्गा महौजसः । गिरयो येषु देवानां सन्ति क्रीडनहेतवः ॥६३॥ भीमातिभीमदाक्षिण्यात्ते चान्यैरपि वः कुले । अनुज्ञाताः सुरैः सर्वैः पूर्वमित्येवमागमः ॥६॥ पुराणि तेषु रम्याणि सन्ति काञ्चनसमभिः । संपूर्णानि महारत्नैः करदष्टदिवाकरैः ॥६५॥ संध्याकारो मनोहादः सुवेलः काञ्चनो हरिः । योधनो जलधिध्वानो हंसद्वीपो मरक्षमः॥६६॥ अर्द्धस्वर्गोत्कटावती विघटो रोधनोऽमलः । कान्तः स्फुटतटो रत्नद्वीपस्तोयावली सरः ॥६७॥ अलङ्घनो नमोमानुः क्षेममित्येवमादयः । आसन् ये रमणोदेशा देवानां निरुपद्रवाः ॥६८॥ त एव सांप्रतं जाता भूरिपुण्यैरुपार्जिताः । पुराणां संनिवेशा वो नानारत्नवसुंधराः ॥६९॥ दूतोऽवरोत्तरे भागे समुद्वपरिवेष्टिते । शतत्रयमतिक्रम्य योजनानामलं पृथुः ॥७॥ अतिशाखामृगद्वीपः प्रसिद्धो भुवनत्रये । यस्मिन्नवान्तरद्वीपाः सन्ति रम्याः सहस्रशः ॥७॥
पुष्परागमणेर्भाभिः क्वचित् प्रज्वलतीव यः । सस्यैरिव क्वचिच्छन्नो हरिन्मणिमरीचिमिः ॥७२॥ तुम्हें छोड़नेको समर्थ नहीं है और तुम भी मेरे प्रेमपाशको छोड़कर कैसे जाओगे ॥५७।। श्रीकण्ठसे ऐसा कहकर कोतिधवलने अपने पितामहके क्रमसे आगत महाबुद्धिमान् आनन्द नामक मन्त्रीको बुलाकर कहा ॥५८॥ .कि तुम चिरकालसे मेरे नगरोंकी सारता और असारताको अच्छी तरह जानते हो अतः श्रीकण्ठके लिए जो नगर सारभूत हो सो कहो ॥५९॥ इस प्रकार कहनेपर वृद्ध मन्त्री कहने लगा। जब वह वृद्ध मन्त्री कह रहा था तब उसकी सफेद दाढ़ी वक्षःस्थलपर हिल रही थी और उससे ऐसा जान पड़ता था मानो हृदयमें विराजमान स्वामीको चमर ही ढोर रहा हो ॥६०। उसने कहा कि हे राजन् ! यद्यपि आपके नगरोंमें ऐसा एक भी नगर नहीं है जो सुन्दर न हो तथापि श्रीकण्ठ स्वयं ही खोजकर इच्छानुसार-जो इन्हें रुचिकर हो, ग्रहण कर लें ॥६१॥ इस समुद्रके बीचमें ऐसे बहुतसे द्वीप हैं जहाँ कल्पवृक्षोंके समान आकारवाले वृक्षोंसे दिशाएं व्याप्त
रही हैं ॥६॥ इन द्वीपोंमें ऐसे अनेक पर्वत हैं जो नाना प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त हैं, ऊँचे-ऊँचे शिखरोंसे सुशोभित हैं, महादेदीप्यमान हैं और देवोंकी क्रीडाके कारण हैं ॥६॥ राक्षस भीम, अतिभीम तथा उनके सिवाय अन्य सभी देवोंने आपके वंशजोंके लिए वे सब द्वीप तथा पर्वत दे रखे हैं ऐसा पूर्व परम्परासे सुनते आते हैं ॥६४॥ उन द्वीपोंमें सुवर्णमय महलोंसे मनोहर और किरणोंसे सूर्यको आच्छादित करनेवाले महारत्नोंसे परिपूर्ण अनेक नगर हैं ॥ ६५ ।। उन नगरोंके नाम इस प्रकार हैं-सन्ध्याकार, मनोह्लाद, सुवेल, कांचन, हरि, योधन, जलधिध्वान, हंसद्वीप, भरक्षम, अर्धस्वर्गोत्कट, आवर्त, विघट, रोधन, अमल, कान्त, स्फूटतट, रत्नद्वीप, तोयावली, सर, अलंघन, नभोभानु और क्षेम इत्यादि अनेक सुन्दर-सुन्दर स्थान हैं। इन स्थानोंमें देव भी उपद्रव नहीं कर सकते हैं ।।६६-६८॥ जो बहुत भारी पुण्यसे प्राप्त हो सकते हैं और जहाँकी वसुधा नाना प्रकारके रत्नोंसे प्रकाशमान है ऐसे वे समस्त नगर इस समय आपके आधीन हैं ॥ ६९ ॥ यहाँ पश्चिमोत्तर भाग अर्थात् वायव्य दिशामें समुद्रके बीच तीन सौ योजन विस्तारवाला बड़ा भारी वानर द्वीप है। यह वानर द्वीप तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध है और उसमें महामनोहर हजारों अवान्तर द्वीप हैं ॥७०-७१॥ यह द्वीप कहीं तो पुष्पराग मणियोंकी लाल-लाल प्रभासे ऐसा जान पड़ता है १. वैघटो। २. मणिभाभिः म. ।
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