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पद्मपुराणे
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वेगेन स ततो गत्वा पतितस्तत्र भूतले । तिष्ठन्ति मुनयो यत्र विहायस्तलचारिणः ॥२३९॥ ततस्तं वेपथुग्रस्तं सवाणं वीक्ष्य वानरम् । मुनीनामनुकम्पाऽभूत् संसारस्थितिवेदिनाम् ॥ २४०॥ तस्मै पञ्चनमस्कारः सर्वत्यागसमन्वितः । धर्मदानसमुद्युक्तैरुपदिष्टस्तपोधनैः ॥२४१ ॥ ततः स विकृतां त्यक्त्वा तनुं वानरयोनिजाम् । महोदधि कुमारोऽभूत् क्षणेनोत्तमविग्रहः ॥२४२॥ ततो यावदसौ हन्तुं खेचरोऽन्यान् समुद्यतः । कपींस्तावदयं प्राप्तः कृतस्व तनुपूजनः ॥२४३॥ हन्यमानां नरैः क्रूरैर्दृष्ट्वा वानरसंहतिम् । चक्रे वैक्रियसामर्थ्यात् कपीनां महतीं चमूम् ||२४४|| दंष्ट्राङ्कुरकरालैस्तैर्वदनैर्ऋविकारिभिः । सिन्दूरसदृशच्छायैः कृतभीषणनिःस्वनैः ।। २४५ ।। उत्क्षिप्य पर्वतान् केचित् केचिदुन्मूल्य पादपान् । आहत्य धरणीं केचित् पाणिनास्फाल्य चापरे ॥ २४६॥ क्रोधसंभाररौद्राङ्गा दूरोत्प्लवनकारिणः । बभणुर्वानराध्यक्षं खेचरं भिन्नचेतसम् ॥ २४७॥ तिष्ठ तिष्ठ दुराचार मृत्योः संप्रति गोचरे । निहत्य वानरं पाप तवाद्य शरणं कुतः || २४८ ॥ अभिधायेति तैः सर्वं व्योम पर्वतपाणिभिः । व्याप्तं तथा यथा तस्मिन् सूचीभेदोऽपि नेक्ष्यते ॥ २४९॥ ततो विस्मयमापनस्तडित्केशो व्यचिन्तयत् । नेदं बलं प्लवङ्गानां किमप्यन्यदिदं भवेत् ॥ २५० ॥ ततो निरीह देहोऽसौ माधुर्यमितया गिरा । वानरान्विनयेनेदमब्रवीन्नयपण्डितः ॥२५१॥ सन्तो वदत के यूयं महाभासुरविग्रहाः । न प्रकृत्या प्लवङ्गानां शक्तिरेषा समीक्ष्यते ॥ २५२॥
देकर उसने बाण द्वारा वानरको मार डाला ||२३८ || घायल वानर वेगसे भागकर वहाँ पृथ्वीपर पड़ा जहाँ कि आकाशगामी मुनिराज विराजमान थे || || २३९ || जिसके शरीर में कँपकँपी छूट रही
तथा बाणछिदा हुआ था ऐसे वानरको देखकर संसारकी स्थितिके जानकार मुनियोंके हृदय में दया उत्पन्न हुई || २४० || उसी समय धर्मंदान करनेमें तत्पर एवं तपरूपी धनके धारक मुनियोंने उस वानर के लिए सब पदार्थोंका त्याग कराकर पंचनमस्कार मन्त्रका उपदेश दिया || २४१ | उसके फलस्वरूप वह वानर योनि में उत्पन्न हुए अपने पूर्वविकृत शरीरको छोड़कर क्षणभर में उत्तम शरीरका धारी महोदधिकुमार नामक भवनवासी देव हुआ || २४२|| तदनन्तर इधर राजा विद्युत्केश जबतक अन्य वानरोंको मारनेके लिए उद्यत हुआ तबतक अवधिज्ञानसे अपना पूर्वंभव जानकर महोदधिकुमार देव वहाँ आ पहुँचा। आकर उसने अपने पूर्वं शरीरका पूजन किया ||२४३ || दुष्ट मनुष्यों के द्वारा वानरोंके समूह मारे जा रहे हैं यह देख उसने विक्रिया की सामर्थ्यंसे वानरों की एक बड़ी भारी सेना बनायी || २४४ || उन वानरोंके मुख दाँढ़ोंसे विकराल थे, उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं, सिन्दूरके समान लाल-लाल उनका रंग था और वे भयंकर शब्द कर रहे थे || २४५ || कोई वानर पर्वत उखाड़कर हाथमें लिये थे, कोई वृक्ष उखाड़कर हाथमें धारण कर रहे थे, कोई हाथोंसे जमीन कूट रहे थे और कोई पृथ्वी झुला रहे थे || २४६ || क्रोधके भारसे जिनके अंग महारुद्र - महाभयंकर दिख रहे थे और जो दूर-दूर तक लम्बी छलांगें भर रहे थे ऐसे मायामयी वानरोंने अतिशय कुपित वानरवंशी राजा विद्युत्केश विद्याधरसे कहा ||२४७॥ कि अरे दुराचारी ! ठहर-ठहर, अब तू मृत्यु वश आ पड़ा है, अरे पापी ! वानरको मारकर अब तू किसकी शरण में जायेगा ? || २४८ || ऐसा कहकर हाथों में पर्यंत धारण करनेवाले उन मायामयी वानरोंने समस्त आकाशको इस प्रकार व्याप्त कर लिया कि सुई रखनेको भी स्थान नहीं दिखाई देता था || २४९|| तदनन्तर आश्चर्यको प्राप्त हुआ विद्युत्केश विचार करने लगा कि यह वानरोंका बल नहीं है, यह तो कुछ और ही होना चाहिए || २५० || तब शरीरकी आशा छोड़ नीतिशास्त्रका पण्डित विद्युत्केश मधुरवाणी द्वारा विनयपूर्वक वानरोंसे बोला || २५१|| कि हे सत्पुरुषो ! कहो आप लोग कौन हो ? तुम्हारे शरीर अत्यन्त देदीप्यमान हो रहे हैं, तुम्हारी यह शक्ति वानरोंकी स्वाभाविक शक्ति तो नहीं दिखाई १. यथास्मिश्च म. ।
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