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षष्ठं पर्व
१२३
पार्श्वगे पुरुषे कश्चिच्चलयत्येव चामरम् । सलीलमंशुकान्तेन चक्रे वीजनमानने ॥३६८॥ सव्येन वक्त्रमाच्छाद्य काश्चदुत्तलपाणिना । संकोच्य दक्षिणं बाहु व्याक्षिपद् बद्धमुष्टिकम् ।।३६९।। पादासनस्थितं कश्चिदुद्यम्य चरणं शनैः । वामोरुफलके चक्रे दक्षिणं रतिदक्षिणः ॥३७०॥ पादाङ्गुष्टेन कश्चिच्च नेत्रान्तेक्षितकन्यकः । कृत्वा पाणितले गण्डं लिलेख चरणासनम् ॥३७१॥ गाढमप्यपरो बद्धमुन्मुच्य कटिसूत्रकम् । बबन्ध शनकैयः शेषाणमपि चक्रकम् ॥३७२॥ स्फुटदन्योऽन्यसंदष्टप्रोत्तानविकराङ्गुलिः । वक्षः कश्चित्समुद्यम्य बहुतोरणमूर्ध्वयन् ॥३७३॥ पार्श्वस्थस्यापरो हस्तं सख्युरास्फाल्य सस्मितम् । कथां चक्रे विना हेतोः कन्याक्षिप्तचलेक्षणः ॥३७॥ कृतचन्दनचर्चेऽन्यः कुकुमस्थासकाचिते । चक्षुर्वक्षसि चिक्षेप विशाले कृतहस्तके ॥३७५।। कश्चित्कुन्तलमालस्थां गृहीत्वा केशवल्लरीम् । कुटिलामपि वामायां प्रदेशिन्यामयोजयत् ॥३७६।। अधरं कश्चिदाकृष्य वामहस्तेन मन्थरम् । स्वच्छताम्बूलसच्छायमैक्षिष्ट ध्रुवमुन्नयन् ॥३७७॥ अपरोऽभ्रमयत् पद्म बद्धभ्रमरमण्डलम् । सव्येतरेण हस्तेन विसर्पन कर्णिकारजः ॥३७८॥ वीणाभिर्वेणुभिः शङ्खदङ्गझल्लरैस्तथा । जनितोऽथ महानादः काहलानकैमर्दकैः ॥३७९॥ मङ्गलानि प्रयुक्तानि वन्दिभिर्वर्द्धवृन्दकैः । महापुरुषचेष्टाभिर्निबद्धानि प्रमोदिभिः ॥३८०॥ महानादस्य तस्यान्ते धात्री नाम्ना सुमङ्गला । वामेतरकरोपात्तहेमवेत्रलता ततः ॥३८१॥
हाथोंकी
विद्याधर बगल में रखी हुई देदीप्यमान छुरीको हाथके अग्रभागसे चला रहा था तथा बार-बार उसकी ओर कटाक्षसे देखता था ॥३६७।। यद्यपि पासमें खड़ा पुरुष चमर ढोर रहा था तो भी कोई विद्याधर वस्त्रके अंचलसे लीलापूर्वक मुखके ऊपर हवा कर रहा था ॥३६८॥ कोई एक विद्याधर, जिसकी हथेली ऊपरकी ओर थी ऐसे बायें हाथसे मुंह ढंककर, जिसकी मुट्ठी बँधी थी ऐसी दाहिनी भुजाको संकुचित कर फैला रहा था ॥३६९।। कोई एक रतिकुशल विद्याधर, पादासनपर रखे दाहिने पाँवको उठाकर धीरे-से बायीं जाँघपर रख रहा था ॥३७०॥ कन्याकी ओर कटाक्ष चलाता हुआ कोई एक युवा हथेलीपर कपोल रखकर पैरके अंगूठेसे पादासनको कुरेद रहा था ॥३७१।। जिसमें लगा हुआ मणियोंका समूह शेषनागके समान जान पड़ता था ऐसे कसकर बंधे हुए कटिसूत्रको खोलकर कोई यवा उसे फिर से धीरे-धीरे बांध रहा था॥३७२।। कोई एक यवा दोन चटचटाती अँगलियोंको एक दूसरेमें फंसाकर ऊपरकी ओर कर रहा था तथा सीना फलाकर भुजाओंका तोरण खड़ा कर रहा था ॥३७३॥ जिसकी चंचल आँखें कन्याकी ओर पड़ रही थीं ऐसा कोई एक युवा बगलमें बैठे हुए मित्रका हाथ अपने हाथमें ले मुसकराता हुआ निष्प्रयोजन कथा कर रहा था-गप-शप लड़ा रहा था॥३७४।। कोई एक युवा, जिसपर चन्दनका लेप लगानेके बाद केशरका तिलक लगाया था तथा जिसपर हाथ रखा था ऐसे विशाल वक्षस्थलपर दृष्टि डाल रहा था ॥३७५।। कोई एक विद्याधर ललाटपर लटकते हुए घुघराले बालोंको बायें हाथकी प्रदेशिनी अंगुलीमें फंसा रहा था।।३७६।। कोई एक युवा स्वच्छ ताम्बूल खानेसे लाल-लाल दिखनेवाले ओठको धीरे-धीरे बायें हाथसे खींचकर भौंह ऊपर उठाता हुआ देख रहा था ॥३७७॥ और कोई एक युवा कणिकाकी परागको फैलाता हुआ दाहिने हाथसे जिसपर भौंरे मँडरा रहे थे ऐसा कमल घुमा रहा था ॥३७८॥ उस समय स्वयंवर मण्डपमें वीणा, बाँसुरी शंख, मृदंग, झालर, काहल, भेरी और मर्दक नामक बाजोंसे उत्पन्न महाशब्द हो रहा था ॥३७९|| महापुरुषोंकी चेष्टाएँ देख जो मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे तथा जिन्होंने अलग-अलग अपने झुण्ड बना रखे थे ऐसे बन्दोजनोंके द्वारा मंगल पाठका उच्चारण हो रहा था ॥३८०॥ तदनन्तर महाशब्दके शान्त होने के बाद दाहिने हाथमें स्वर्णमय छड़ीको धारण करनेवाली सुमंगला धाय कन्यासे निम्न वचन बोली। उस समय १. संदष्टः । २. मूर्द्धनि ख. । ३. मण्डलैः म., मुड्डुकैः क.। ४. वृद्ध-म.।
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