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षष्ठं पर्व प्रव्रजामीति चानेन गदितेऽन्तःपुरान्महान् । उदतिष्ठद् गृहान्तेषु विलापः प्रतिनादवान् ॥३३९॥ तन्त्रीवंशादिसंमिश्रमृदङ्गध्वनितोपमः । प्रविलापः सुनारीणां मुनेरप्यहरन्मनः ॥३४०॥ तवार्पितः परप्रीत्या तडित्केशेन बालकः । सुकेशो नवराज्यस्थः पालनीयः सुतोऽधुना ॥३४॥ इति विज्ञाप्यमानोऽपि युवराजेन सादरम् । 'नेत्रामेयजलस्थूलधारावर्षविधायिना ॥३४२॥ निष्कण्टकमिदं राज्यं भुव तावन्महागुणम् । पुरन्दर इवोदारै गैर्मानय यौवनम् ॥३४३॥ एवं संचोचमानोऽपि मन्त्रिमिनमानसैः। बहुभेदान्युदाहृत्य शास्त्राणि नयकोविदः ॥३४४॥ अनाथानाथ नः कृत्वा स्वन्मनःस्थितमानसान् । विहाय प्रस्थितः कासि लता इव महातरुः ॥३४५॥ इति प्रसाधमानोऽपि चरणानतमूर्द्धमिः । गुणोथप्रियकारीभि रीमिः क्षरदश्रुमिः ॥३४६॥ गुणैर्नाथ तवोदारैर्बद्धो कालं चिरं सतीम् । प्रतिभज्य महालक्ष्मी योजितां ललितां सदा ॥३४७॥ ब्रजसि क्वेति सामन्तैर्गण्डान्तैरश्रुधारिमिः । समं विज्ञाप्यमानोऽपि नृपाटोपविवर्जितैः ॥३४८॥ छित्वा स्नेहमयान् पाशान् स्यक्त्वा सर्वपरिग्रहम् । प्रतिचन्द्राभिधानाय दत्त्वा पुत्राय संपदम् ॥३४९॥ विग्रहेऽपि निरासङ्गो जग्राहोग्रां समग्रधीः । धीरो दैगम्बरी लक्ष्मी क्ष्मातलस्थिरचन्द्रमाः ॥३५०॥ ततो ध्यानगजारूढस्तपस्तीक्ष्णपतत्रिणा । शिरश्छित्वा भवारातेः प्रविष्टः सिद्धकाननम् ॥३५॥ प्रतीन्दुरपि पुत्राय किष्किन्धाय ददौ श्रियम् । यौवराज्यं कनिष्ठाय तस्मै चान्ध्रकरूढये ॥३५२॥
महोदधिके यह कहते ही कि मैं दीक्षा लेता हूँ अन्तःपुरसे विलापका बहुत भारी शब्द उठ खड़ा हुआ। उस विलापकी प्रतिध्वनि समस्त महलोंमें गूंजने लगी॥३३९|| वीणा-बाँसुरी आदिके शब्दोंसे मिश्रित मृदंग ध्वनिकी तुलना करनेवाला स्त्रियोंका वह विलाप साधारण मनुष्यकी बात जाने दो मुनिके भी चित्तको हर रहा था अर्थात् करुणासे द्रवीभूत कर रहा था ॥३४०॥ उसी समय युवराज भी वहाँ आ गया। वह नेत्रोंमें नहीं समानेवाले जलकी बड़ी मोटी धाराको बरसाता हुआ आदरपूर्वक बोला कि विद्युत्केश अपने पुत्र सुकेशको परमप्रीतिके कारण आपके लिए सौंप गया है । वह नवीन राज्यपर आरूढ़ हुआ है इसलिए आपके द्वारा रक्षा करने योग्य है ॥३४१-३४२॥ जिनका हृदय दुखी हो रहा था ऐसे नीतिनिपुण मन्त्रियोंने भी अनेक शास्त्रोंके उदाहरण देकर प्रेरणा की कि इस महावैभवशाली निष्कण्टक राज्यका इन्द्रके समान उपभोग करो और उत्कृष्ट भोगोंसे यौवनको सफल करो॥३४३-३४४॥ जिनके मस्तक चरणोंमें नम्रीभूत थे, जो अपने गुणोंके द्वारा उत्कट प्रेम प्रकट कर रही थी तथा जिनकी आँखोंसे आँसू झर रहे थे ऐसी स्त्रियोंने भी यह कहकर उसे प्रसन्न करनेका प्रयत्न किया कि हे नाथ ! जिनके हृदय आपके हृदयमें स्थित हैं ऐसी हम सबको अनाथ बनाकर लताओंको छोड़ वृक्षके समान आप कहाँ जा रहे हैं ? ॥३४५-३४६॥ हे नाथ ! यह मनोहर राज्यलक्ष्मी पतिव्रता स्त्रीके समान चिरकालसे आपके उत्कृष्ट गुणोंसे बद्ध है-आपमें आरक्त है इसे छोड़कर आप कहाँ जा रहे हैं ? और जिनके कपोलोंपर अश्रु बह रहे थे ऐसे सामन्तोंने भी राजकीय आडम्बरसे रहित हो एक साथ प्रार्थना की पर सब मिलकर भी उसके मानसको नहीं बदल सके॥३४७-३४८॥ अन्तमें उसने स्नेहरूपी पाशको छेदकर तथा समस्त परिग्रहका त्याग कर प्रतिचन्द्र नामक पुत्रके लिए राज्य सौंप दिया और शरीर में भी निःस्पृह होकर कठिन दैगम्बरी लक्ष्मी-मुनिदीक्षा धारण कर ली। वह पूर्ण बुद्धिको धारण करनेवाला अतिशय गम्भीर था और अपनी सौम्यताके कारण ऐसा जान पड़ता था मानो पृथिवी तलपर स्थिर रहनेवाला चन्द्रमा ही हो ॥३४९-३५०॥ तदनन्तर ध्यानरूपी हाथीपर बैठे हुए मुनिराज महोदधि तपरूपी तीक्ष्ण बाणसे संसाररूपी शत्रुका शिर छेदकर सिद्धवन अर्थात् मोक्षमें प्रविष्ट हुए ॥३५१॥ तदनन्तर प्रतिचन्द्र भी अपने ज्येष्ठ पुत्र किष्किन्धके लिए राज्यलक्ष्मी और अन्ध्रकरूढि नामक छोटे पुत्रके लिए युवराज १. नेत्रमेघ म. । २. गुणौघप्रिय म. ।
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