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पद्मपुराणे
अन्येद्युः प्रतिपन्नश्च जैनमार्ग निरम्बरम् । सिद्धैरासेवितं स्थानं गतश्चामलयोगतः ॥३५३॥ ततस्तावुद्यतौ कृत्यं भ्रातरौ भुवि चक्रतुः । अन्योन्याक्रान्ततेजस्कौ सूर्याचन्द्रमसाविव ॥ ३५४ ॥ अत्रान्तरे नभोगानां पर्वते दक्षिणक्षितौ । रथनूपुरनामास्ति पुरं सुरपुराकृति ॥३५५॥ आसीत्तत्रोभयोः श्रेण्योः स्वामी भूरिपराक्रमः । दधावशनिवेगाख्यां यः शत्रुत्रासकारिणीम् ॥ ३५६ ॥ पुत्र विजयसिंहोऽस्य नाम्नाऽऽदित्यपुरं परम् । वाञ्छन् रूपावलेपेन प्रयातोऽथ स्वयंवरम् ॥३५७॥ विद्यामन्दरसंज्ञस्य सुतामम्बरचारिणः । वेगवत्यां समुत्पन्नां कान्तिदिग्धनभस्तलाम् ॥३५८॥ teri atarrप्तां वीक्ष्य पुत्रीं मनोहराम् । स्वजनानुमतो मोहात् स्वयंवरमरीरचत् ॥३५९॥ अपरेऽपि खगाः सर्वे विमानैर्मणिशालिभिः । पूरयन्तो नमः शीघ्रं गता भूषितविग्रहाः ॥ ३६० ॥ ततो मञ्चेषु रम्येषु रत्नस्तम्भष्टतात्मसु । तुङ्गासनसमृद्धेषु स्फुरन्मणिमरीचिषु ॥ ३६१ ॥ मितेन परिवारेण युक्ता देहोपयोगिना । उपविष्टा यथास्थानं प्रधाना व्योमचारिणः ॥३६२॥ श्रीमालायां ततस्तेषां सर्वेषां व्योमचारिणाम् । मध्यस्थायां समं पेतुर्दृष्टीन्दी रपङ्क्तयः ॥३६३॥ अथ स्वयंवराशानां प्रवृत्ता व्योमचारिणाम् । मदनाश्लिष्टचित्तानामिति सुन्दरविभ्रमाः ॥ ३६४॥ निष्कम्पमपि मूर्द्धस्थं मुकुटं कश्चिदुन्नतम् | अकरोत् किल निष्कम्पं रत्नांशुच्छन्नपाणिना ॥३६५॥ कश्चित् कूर्परमाधाय कटिपावे सजुम्मणः । चक्रदेहस्य वलनं स्फुटत्सन्धिकृतस्त्रनम् ॥३६६॥ प्रदेशेऽपि स्थितां कश्चिदुज्ज्वलामसिपुत्रिकाम् । असारयत् कराग्रेण कटाक्षकृत वीक्षणाम् ॥३६७॥
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पद देकर निर्ग्रन्थ दीक्षा को प्राप्त हुआ और निर्मल ध्यानके प्रभावसे सिद्धालय में प्रविष्ट हो गया अर्थात् मोक्ष चला गया ॥ ३५२ - ३५३॥
तदनन्तर - जिनका तेज एक दूसरे में आक्रान्त हो रहा था ऐसे सूर्य-चन्द्रमा के समान तेजस्वी दोनों भाई किष्किन्ध और अन्ध्रकरूढि पृथिवीपर अपना कार्यभार फैलानेको उद्यत हुए || ३५४ || इस समय विजयार्धं पर्वतकी दक्षिणश्रेणी में इन्द्र के समान रथनूपुर नामका नगर था ।। ३५५ | उसमें दोनों श्रेणियोंका स्वामी महापराक्रमी तथा शत्रुओंको भय उत्पन्न करनेवाला राजा अशनिवेग रहता था ॥ ३५६ ॥ अशनिवेगका पुत्र विजयसिंह था । आदित्यपुरके राजा विद्यामन्दर विद्याधरकी वेगवती रानी से समुत्पन्न एक श्रीमाला नामकी पुत्री थी । वह इतनी सुन्दरी थी कि अपनी कान्तिसे आकाशतलको लिप्त करती थी । विद्यामन्दरने पुत्रीको यौवनवती देख आत्मीयजनोंकी अनुमतिसे स्वयंवर रचवाया । अशनिवेगका पुत्र विजयसिंह श्रीमालाको चाहता था इसलिए रूपके गवंसे प्रेरित हो स्वयंवर में गया || ३५७ - ४५९ ।। जिनके शरीर भूषित थे ऐसे अन्य समस्त विद्याधर भी मणियोंसे सुशोभित विमानोंके द्वारा आकाशको भरते हुए स्वयंवर में पहुँचे || ३६०॥ तदनन्तर जो रत्नमय खम्भों पर खड़े थे, ऊँचे-ऊँचे सिंहासनोंसे युक्त थे तथा जिनमें खचित मणियोंकी किरणें फैल रही थीं ऐसे मनोहर मंचोंपर प्रमुख प्रमुख विद्याधर यथास्थान आरूढ़ हुए। उन विद्याधरोंके साथ उनकी शरीर रक्षा के लिए उपयोगी परिमित परिवार भी था || ३६१ - ३६२ ॥ तदनन्तर मध्य में विराजमान श्रीमाला पुत्रीपर सब विद्याधरोंके नेत्ररूपी नीलकमल एक साथ पड़े || ३६३|| तदनन्तर जिनकी आशा स्वयंवर में लग रही थी और जिनका चित्त कामसे आलिंगित था ऐसे विद्याधरोंमें निम्नांकित सुन्दर चेष्टाएँ प्रकट हुईं || ३६४ || किसी विद्याधर के मस्तकपर स्थित उन्नत मुकुट, यद्यपि निश्चल था तो भी वह उसे रत्नोंकी किरणोंसे आच्छादित हाथके द्वारा निश्चल कर रहा था || ३६५|| कोई विद्याधर कोहनी कमरके पास रख जमुहाई लेता हुआ शरीरको मोड़ रहा था - अँगड़ाई ले रहा था। उसकी इस क्रियासे शरीर के सन्धि-स्थान चटककर शब्द कर रहे थे || ३६६ || कोई
१. दक्षिणे स्थितौ म । २. कृति: म., ख. । ३. सिंहश्च म । ४. दृष्टेन्दुवर म. ।
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