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षष्ठ पर्व
११३ तडित्केशः कुतो हेतोराश्रितो दुर्द्धराकृतिम् । संपृष्टः श्रेणिकेनैवमुवाच गणनायकः ॥२२६॥ अन्यदाथ तडित्केशः प्रमदाख्यं मनोहरम् । निष्कान्तो रन्तुमुद्यानं कृतक्रीडनकालयम् ॥२२७॥ पमेन्दीवररम्येषु सरःसु स्वच्छवारिषु । उद्यत्तरङ्गभङ्गेषु द्रोणीसंचारचारुषु ॥२२८॥ दोलासु च महार्हासु रचितासनभूमिषु । तुङ्गपादपसतासु दूरप्रेङ्खाप्रवृद्धिषु ॥२२९॥ सतः सोपानमार्गेषु रत्नरञ्जितसानुषु । द्रुमखण्डपरीतेषु हेमपर्वतकेषु च ॥२३०॥ फलपुष्पमनोज्ञेषु चलत्पल्लवशालिषु । लतालिङ्गितदेहेषु महीरुहचयेषु च ॥२३१॥ मुनिक्षोमनसामर्थ्ययुक्तविभ्रमसंपदाम् । पुष्पादिप्रचयासक्तपाणिपल्लवशोमिनाम् ॥२३२॥ नितम्बवहनायासजातस्वेदाम्बुविप्रषाम् । कुचकम्पोच्छलत्स्थूलमुक्ताहारपुरुविषाम् ॥२३३॥ निमजदुद्भवत्सूक्ष्मवलिमध्य विराजिताम् । निःश्वासाकृष्टमत्तालिवारणाकुलचेतसाम् ॥२३॥ स्रस्ताम्बरसमालम्बिकराणां चलचक्षुषाम् । मध्यमास्थाय दाराणां स रेमे राक्षसाधिपः ॥२३५॥ अथ क्रीडनसक्ताया देव्यास्तस्य पयोधरौ । श्रीचन्द्राख्यां दधानायाः कपिना नखकोटिभिः ॥२३६॥ विपाटितौ स्वभावेन विनयप्रच्युतात्मना । नितान्तं खेद्यमानेन रुषा विकृतचक्षुषा ॥२३७॥ समाश्वास्य ततः कान्तां प्रगलत्स्तनशोणिताम् । निहतो बाणमाकृष्य तडित्केशेन वानरः ॥२३८॥
यह समाचार जानकर परमार्थके जाननेवाले महोदधिने मुनिदीक्षा धारण कर ली ।।२२५।। यह कथा सुनकर श्रेणिक राजाने गौतम गणधरसे पूछा कि हे स्वामिन् ! विद्युत्केशने किस कारण कठिन दीक्षा धारण की। इसके उत्तरमें गणधर भगवान् इस प्रकार कहने लगे ॥२२६।। कि किसी समय विद्युत्केश जिसमें क्रीड़ाके अनेक स्थान बने हुए थे ऐसे अत्यन्त सुन्दर प्रमदनामक वनमें क्रीड़ा करनेके लिए गया था सो वहाँ कभी तो वह उन सरोवरोंमें क्रीड़ा करता था जो कमल तथा नील कमलोंसे मनोहर थे. जिनमें स्वच्छ जल भरा था. जिनमें बडी-बडी लहरें उठ रही थीं तथा नावोंके संचारसे महामनोहर दिखाई देते थे ॥२२७-२२८।। कभी उन बेशकीमती झूलोंपर झूलता था जिनमें बैठनेका अच्छा आसन बनाया गया था, जो ऊंचे वृक्षसे बंधे थे तथा जिनकी उछाल बहुत लम्बी होती थी ॥२२९।। कभी उन सुवर्णमय पर्वतोंपर चढ़ता था जिनके ऊपर जानेके लिए सीढ़ियोंके मार्ग बने हुए थे, जिनके शिखर रत्नोंसे रंजित थे, और जो वृक्षोंके समूहसे वेष्टित थे ॥२३०॥ कभी उन वृक्षोंकी झुरमुटमें क्रीड़ा करता था जो फल और फूलोंसे मनोहर थे, जो हिलते हुए पल्लवोंसे सुशोभित थे और जिनके शरीर अनेक लताओंसे आलिंगित थे ॥२३१॥ कभी उन स्त्रियोंके बीच बैठकर क्रीड़ा करता था कि जिनके हाव-भाव-विलासरूप सम्पदाएँ मुनियोंको भी क्षोभित करनेकी सामर्थ्य रखती थीं, जो फूल आदि तोड़नेकी क्रियामें लगे हुए हस्तरूपी पल्लवोंसे शोभायमान थीं, स्थूल नितम्ब धारण करनेके कारण जिनके शरीरपर स्वेद जलकी बूंदें प्रकट हो रही थीं, स्तनोंके कम्पनसे ऊपरकी ओर उछलनेवाले बड़े-बड़े मोतियोंके हारसे जिनकी कान्ति बढ़ रही थी, जिसकी सूक्ष्म रेखाएं कभी अन्तहित हो जाती थीं और कभी प्रकट दिखाई देती थीं ऐसी कमरसे जो सशोभित थीं. श्वासोच्छवाससे आकर्षित मत्त भौंरोंके निराकरण करने में जिनका चित्त व्याकल था, जो नीचे खिसके हुए वस्त्रको अपने हाथसे थामे हुई थी तथा जिनके नेत्र इधर-उधर चल रहे थे। इस प्रकार राक्षसोंका राजा विद्युत्केश अनेक स्त्रियोंके बीच बैठकर क्रीड़ा कर रहा था ।।२३२-२३५।। अथानन्तर राजा विद्युत्केशकी रानी श्रीचन्द्रा इधर क्रीड़ामें लीन थी उधर किसी वानरने आकर अपने नाखूनोंके अग्रभागसे उसके दोनों स्तन विदीर्ण कर दिये ॥२३६|| जिस वानरने उसके स्तन विदीर्ण किये थे वह स्वभावसे ही अविनयी था, क्रोधसे अत्यन्त खेदको पाप्त हो रहा था, उसके नेत्र विकृत दिखाई देते थे ॥२३७।। तदनन्तर जिसके स्तनसे खून झड़ रहा था ऐसी वल्लभाको सान्त्वना १. कम्पोज्ज्वलत् म. । २. पुर म. । ३. विद्यमानेन म. ।
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