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पद्मपुराणे
परित्यज्य नृपो राज्यं श्रमणो जायते महान् । तपसा प्राप्य संबन्धं तपो हि श्रम उच्यते ॥२११॥ अयं तु व्यक्त एवास्ति शब्दोऽन्यत्र प्रयोगवान् । यष्टिहस्तो यथा यष्टिः कुन्तः कुन्तकरस्तथा ॥ २१२ ॥ मञ्चस्थाः पुरुषा मञ्चा यथा च परिकीर्तिताः । साहचर्यादिभिर्धर्मैरेवमाद्या उदाहृताः ।।२१३|| तथा वानरचिह्नेन छत्रादिविनिवेशिना । विद्याधरा गताः ख्यातिं वानरा इति विष्टपे || २१४ ॥ श्रेयसो देवदेवस्य वासुपूज्यस्य चान्तरे । अमरप्रभसंज्ञेन कृतं वानरलक्षणम् ॥ २१५ ॥ तस्कृतात् सेवनाजाताः शेषा अपि तथाक्रियाः । परां हि कुरुते प्रीतिं पूर्वाचरित सेवनम् ।।२१६ ।। एवं संक्षेपतः प्रोक्तः कपिवंशसमुद्भवः । प्रवक्ष्यामि परां वार्तामिमां श्रेणिक तेऽधुना ॥ २१७॥ महोदधिरवो नाम खेचराणामभूत् पतिः । कुले वानरकेतूनां किष्कुनाम्नि पुरूत्तमे || २१८|| विद्युप्रकाशा नामास्य पत्नी स्त्रीगुणसंपदाम् । निधानमभवद् भावगृहीतपति मानसा ||२१९|| रामाणामभिरामाणां शतशो योपरि स्थिता । सौभाग्येन तु रूपेण विज्ञानेन तु कर्मभिः || २२० ॥ पुत्राणां शतमेतस्य साष्टकं वीर्यशालिनाम् । येषु राज्यभरं न्यस्य स भोगान् बुभुजे सुखम् ||२२१|| मुनिसुव्रतनाथस्य तीर्थे यः परिकीर्तितः । व्यापारैरद्भुतैर्नित्यमनुरञ्जित खेचरः || २२२|| लङ्कायां स तदा स्वामी रक्षोवंशेनमोविधुः । विद्युत्केश इति ख्यातो बभूव जनताप्रियः ॥२२३॥ गत्यागवानसंवृद्धमभूत् प्रेम परं तयोः । यतश्चित्तममूदेकं पृथक्त्वं देहमात्रतः ॥ २२४ ॥ तडिकेशस्य विज्ञाय श्रामण्यमुदधिस्वनः । श्रमणत्वं परिप्राप्तः परमार्थविशारदः || २२५ ||
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कहे गये हैं। जो राजा राज्य छोड़कर तपके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ते हैं वे श्रमण कहलाते हैं क्योंकि श्रम करे सो श्रमण और तपश्चरण ही श्रम कहा जाता है ।। २०८ - २११ ॥ इसके सिवाय यह बात तो स्पष्ट ही है कि शब्द कुछ है और उसका प्रयोग कुछ अन्य अर्थमें होता है जैसे जिसके हाथमें यष्टि है वह यष्टि, जिसके हाथमें कुन्त है वह कुन्त और जो मंचपर बैठा है वह मंच कहलाता है । इस तरह साहचयं आदि धर्मोके कारण शब्दोंके प्रयोगमें भेद होता है इसके उदाहरण दिये गये हैं ||२१२-२१३॥ | इसी प्रकार जिन विद्याधरोंके छत्र आदिमें वानरके चिह्न थे वे लोकमें 'वानर' इस प्रसिद्धिको प्राप्त हुए || २१४ || देवाधिदेव श्रेयान्सनाथ और वासुपूज्य भगवान् के अन्तरालमें राजा अमरप्रभने अपने मुकुट आदिमें वानरका चिह्न धारण किया था सो उसकी परम्परामें जो अन्य राजा हुए वे भी ऐसा ही करते रहे । यथार्थ में पूर्वजों की परिपाटीका आचरण करना परम प्रीति उत्पन्न करता है || २१५ - २१६ ॥ गौतम स्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! इस तरह संक्षेपसे वानर - वंशकी उत्पत्ति कही है अब एक दूसरी बात कहता हूँ सो सुन || २१७॥ अथानन्तर किष्कुनामक उत्तम नगरमें इसी वानर-वंशमें महोदधि नामक विद्याधर राजा हुआ। इसकी विद्युत्प्रकाशा नामकी रानी थी जो स्त्रियोंके गुणरूपी सम्पदाओंकी मानो खजाना थी । उसने अपनी चेष्टाओंसे पतिका हृदय वश कर लिया था, वह सौभाग्य, रूप, विज्ञान तथा अन्य चेष्टाओंके कारण सैकड़ों सुन्दरी स्त्रियोंकी शिरोमणि थो ॥२१८-२२०॥ राजा महोदधिके एक सौ आठ पराक्रमी पुत्र थे सो उनपर राज्यभार सौंपकर वह सुखसे भोगोंका उपभोग करता था || २२१|| मुनि सुव्रत भगवान् के तीर्थंमें राजा महोदधि प्रसिद्ध विद्याधर था । वह अपने आश्चर्यजनक कार्योंसे सदा विद्याधरोंको अनुरक्त रखता था ॥ २२२॥ उसी समय लंका में विद्युत् केश नामक प्रसिद्ध राजा था। जो राक्षस वंशरूप आकाशका मानो चन्द्रमा था और लोगोंका अत्यन्त प्रिय था || २२३ || महोदधि और विद्युत्केशमें परम स्नेह था जो कि एक दूसरे के यहाँ आने-जाने के कारण परम वृद्धिको प्राप्त हुआ था । उन दोनोंका चित्त तो एक था केवल शरीर मात्रसे ही दोनोंमें पृथक्पना था || २२४ || विद्युत्केशने मुनिदीक्षा धारण कर ली १. च म. । २. रक्षोवंशे नभोविधुः म. ।
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