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पद्मपुराणे
'अलोकस्वाहतस्वामिपुरुषस्य विसर्जने । परीक्ष्य भ्रातरं प्रीतं ददावस्मै महद्धनम् ॥ १५६ ॥
दुष्टां ततः खियं त्यक्त्वा संगीर्यानुजबोधनम् । प्रव्रज्यायमभूदिन्द्रः कनीयांस्तु शमी मृतः ॥ १५७॥ देवीभूयश्च्युतो जातः श्रीकण्ठस्तत्प्रबुद्धये । आत्मानं दर्शयन्निन्द्रः श्रीमान्नन्दीश्वरं गतः ॥ १५८ ॥ सुरेन्द्रं वीक्ष्य पित्रा ते जातस्मरणमीयुषा । इदं कथितमस्माकमिति वृद्धास्तमूचिरे ॥ १५९ ॥ एतदाख्यानकं श्रुत्वा वज्रकण्ठोऽभवन्मुनिः । इन्द्रायुधप्रभोऽप्येवं न्यस्य राज्यं शरीरजे ॥ १६० ॥ तत इन्द्रमतो जातो मेरुस्तस्माच्च मन्दरः । समीरणगतिस्तस्मात्तस्मादपि रविप्रभः ॥ १६१ ॥ ततोऽमरप्रभो जातस्त्रिकूटेन्द्र सुतास्य च । परिणेतुं समानीता नाम्ना गुणवती शुभा ॥ १६२॥ अथासौ दर्पणच्छाये वेदीसंबन्धिभूतले । मणिभिः कल्पितं चित्रं पश्यन्नाश्चर्य कारणम् ॥ १६३ ॥ भ्रमरालीपरिष्वक्तमारविदं क्वचिद्वनम् । ऐन्दीवरं वनं चार्द्धपद्मेन्दीवरकं तथा ॥ १६४॥ चपात्तमृणालानां हंसानां युगलानि च । क्रौञ्चानां सारसानां च तथाऽन्येषां पतत्रिणाम् ॥१६५॥ रत्नचूर्णैरतिश्लणैः पञ्चवर्णसमन्वितैः । रचितान् खेचरस्त्रीभिः तत्रापश्यत् प्लवङ्गमान् ॥१६६॥ स तान् दृष्ट्वा परं तोषं जगामाम्बरगाधिपः । मनोज्ञं प्रायशो रूपं धीरस्यापि मनोहरम् ॥१६७॥ पाणिगृहीत्यस्य दृष्ट्वा तान् विकृताननान् । प्रत्यङ्गवेपथुं प्राप्ता प्रचलत्सर्वभूषणा ॥ १६८ ॥
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।। १५४ - १५५ ।। एक दिन उसने अपने स्वामीका एक सेवक छोटे भाईके पास भेजकर झूठ-मूठ ही अपने आहत होनेका समाचार भेजा। उसे सुनकर प्रेमसे भरा छोटा भाई दौड़ा आया । इस घटना से बड़े भाईने परीक्षा कर ली कि यह हमसे स्नेह रखता है । यह जानकर उसने छोटे भाईके लिए बहुत धन दिया । धन देनेका समाचार जब बड़े भाईकी स्त्रीको मिला तो वह बहुत ही कुपित हुई । इस अनबन के कारण बड़े भाईने अपनी दुष्ट स्त्रीका त्याग कर दिया और छोटे भाईको उपदेश देकर दीक्षा ले ली। समाधिसे मरकर बड़ा भाई इन्द्र हुआ और छोटा भाई शान्त परिणामोंसे मरकर देव हुआ । वहाँसे च्युत होकर छोटे भाईका जीव श्रीकण्ठ हुआ । श्रीकण्ठको सम्बोधने के लिए बड़े भाईका जीव जो वैभवशाली इन्द्र हुआ था अपने आपको दिखाता हुआ नन्दीश्वरद्वीप गया था । इन्द्रको देखकर तुम्हारे पिता श्रीकण्ठको जातिस्मरण हो गया । यह कथा मुनियोंने हमसे कही थी ऐसा वृद्धजनोंने वज्रकण्ठसे कहा ॥ १५६ - १५९ ॥
यह कथा सुनकर वज्रकण्ठ अपने वज्रप्रभ पुत्रके लिए राज्य देकर मुनि हो गया । वज्रप्रभ भी अपने पुत्र इन्द्रमत के लिए राज्य देकर मुनि हुआ । तदनन्तर इन्द्रमतसे मेरु, मेरुसे मन्दर, मन्दरसे समीरणगति, समीरणगतिसे रविप्रभ और रविप्रभसे अमरप्रभ नामक पुत्र हुआ । अमरप्रभ लंकाके धनीकी पुत्री गुणवतीको विवाहनेके लिए अपने नगर ले गया ॥ १६० - १६२ ॥ जहाँ विवाहको वेदी बनी थी वहाँकी भूमि दर्पणके समान निर्मल थी तथा वहाँ विद्याधरोंकी स्त्रियों
मणियोंसे आश्चर्यं उत्पन्न करनेवाले अनेक चित्र बना रखे थे । कहीं तो भ्रमरोंसे आलिंगित कमलोंका वन बना हुआ था, कहीं नील कमलोंका वन था, कहीं आधे लाल और नीले कमलोंका वन था, कहीं चोंचसे मृणाल दबाये हुए हंसोंके जोड़े बने थे और कहीं क्रौंच, सारस तथा अन्य पक्षियोंके युगल बने थे । उन्हीं विद्याधरोंने कहीं अत्यन्त चिकने पाँच वर्णके रत्नमयी चूर्णंसे वानरोंके चित्र बनाये थे सो इन्हें देखकर विद्याधरोंका स्वामी राजा अमरप्रभ परम सन्तोषको प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि सुन्दररूप प्रायःकर धीर-वीर मनुष्यके भी मनको हर लेता है ॥१६३-१६७।। इधर राजा अमरप्रभ तो परम सन्तुष्ट हुआ, उधर वधू गुणवती विकृत मुखवाले उन वानरोंको देखकर भयभीत हो गयी । उसका प्रत्येक अंग कांपने लगा, सब आभूषण
१. व्यलीकं स्वाहितं ब. । २. विसर्जनम् म. । ३. पाणिगृहीतास्यं म, ख. ।
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