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षष्ठं पर्व
१०९ निःशेषदृश्यविभ्रान्ततारकाकुललोचना । दर्शयन्तीव रोमाञ्चप्रोद्गमादेहवद्भयम् ॥१६९॥ स्वेदोदबिन्दुसंबद्धविसर्पत्तिलकालिका । भीरुरप्यतिसच्चेष्टा प्राविशभुजपअरम् ॥१७॥ दृष्टा यान् मुदितः पूर्व तेभ्योऽकुप्यत् पुनर्वरः । कान्ताभिप्रायसामर्थ्यात् सुरूपमपि नेष्यते ॥१७॥ ततोऽसावब्रवीत् केन विवाहे मम चित्रिताः । कपयो विविधाकारा अमी वित्रासकारिणः ॥१७२॥ नूनं कश्चिन्ममास्तेऽस्मिन् जनो मत्सरसंगतः । क्षिप्रमन्विष्यतामेष करोम्यस्य वधं स्वयम् ॥१७३॥ ततस्तं कोपगम्भीरगुहागह्वरवर्तिनम् । वर्षीयांसो महाप्राज्ञा मधुरं मन्त्रिणोऽब्रवन् ॥१७॥ तात नास्मिन जनः कोऽपि विद्वेष्टा तव विद्यते । त्वयि वा यस्य विद्वेषः कुतस्तस्याति जीवितम् ॥१७५॥ स त्वं भव प्रसन्नात्मा श्रयतामत्र कारणम् । विवाहमङ्गले न्यस्ता यतः प्लवगपङ्क्तयः॥१७६॥ अन्वये मवतामासीच्छीकण्ठो नाम विश्रुतः । येनेदं नाकसंकाशं सृष्टं किष्कुपुरोत्तमम् ॥१७७॥ सकलस्यास्य देशस्य विविधाकारभाजिनः । अभवत् स नृपः स्रष्टा प्रपञ्चः कर्मणामिव ॥१७८॥ यस्याद्यापि वनान्तेषु लतागृहसुखस्थिताः । गुणान् गायन्ति किन्नर्यः स्थानकं प्राप्य किन्नराः ॥१७९॥ चञ्चलत्वसमुद्भूतमयशो येन शोधितम् । स्थिरप्रकृतिना लक्ष्म्या वासवोपमशक्तिना ॥१८॥ स एतान् प्रथमं दृष्ट्वा वानरानत्र रूपिणः । मानुषाकारसंयुक्तान् जगाम किल विस्मयम् ॥१८॥ रेमे च मदितोऽमीभिः समं विविधचेष्टितैः । मृष्टाशनादिमिश्चामी नितान्तं मुस्थिताः कृताः ॥१८२॥
चंचल हो उठे, सबके देखते-देखते ही उसकी आँखोंकी पुतलियां भयसे घूमने लगीं, उसके सारे शरीरसे रोमांच निकल आये और उनसे वह ऐसे जान पड़ने लगी मानो शरीरधारी भयको ही दिखा रही हो। उसके ललाटपर जो तिलक लगा था वह स्वेदजलकी बूंदोंसे मिलकर फैल गया। यद्यपि वह भयभीत हो रही थी तो भी उसकी चेष्टाएँ उत्तम थीं। अन्तमें वह इतनी भयभीत हुई कि राजा अमरप्रभसे लिपट गयी ॥१६८-१७०॥ राजा अमरप्रभ पहले जिन वानरोंको देखकर प्रसन्न हुआ था अब उन्हीं वानरोंके प्रति अत्यन्त क्रोध करने लगा सो ठीक ही है क्योंकि स्त्रीका अभिप्राय देखकर सुन्दर वस्तु भी रुचिकर नहीं होती ॥१७१॥ तदनन्तर उसने कहा कि हमारे विवाहमें अनेक आकारोंके धारक तथा भय उत्पन्न करनेवाले ये वानर किसने चित्रित किये हैं ? ॥१७२।। निश्चित ही इस कार्यमें कोई मनुष्य मुझसे ईर्ष्या करनेवाला है सो शीघ्र ही उसकी खोज की जाये, मैं स्वयं ही उसका वध करूँगा ॥१७३।। तदनन्तर राजा अमरप्रभको क्रोधरूपी गहरी गुहाके मध्य वर्तमान देखकर महाबुद्धिमान् वृद्ध मन्त्री मधुर शब्दोंमें कहने लगे ॥१७४॥ कि हे स्वामिन् ! इस कार्यमें आपसे द्वेष करनेवाला कोई भी नहीं है । भला, आपके साथ जिसका द्वेष होगा उसका जीवन ही कैसे रह सकता है ? ॥१७५।। आप प्रसन्न होइए और विवाह-मंगलमें जिस कारणसे वानरोंकी पंक्तियां चित्रित की गयी हैं वह कारण सुनिए ॥१७६॥ आपके वंशमें श्रीकण्ठ नामका प्रसिद्ध राजा हो गया है जिसने स्वर्गके समान सुन्दर इस किष्कुपुर नामक उत्तम नगरकी रचना की थी ॥१७७।। जिस प्रकार कर्मोंका मूल कारण रागादि प्रपंच हैं उसी प्रकार अनेक आकारको धारण करनेवाले इस देशका मूल कारण वही श्रीकण्ठ राजा है ।।१७८॥ वनोंके बीच निकुंजोंमें सुखसे बैठे हुए किन्नर उत्तमोत्तम स्थान पाकर आज भी उस राजाके गुण गाया करते हैं ।।१७९॥ जिसकी प्रकृति स्थिर थी तथा जो इन्द्रतुल्य पराक्रमका धारक था ऐसे उस राजाने चंचलताके कारण उत्पन्न हुआ लक्ष्मीका अपयश दूर कर दिया था ॥१८०।। सुनते हैं कि वह राजा सर्वप्रथम इस नगरमें सुन्दर रूपके धारक तथा मनुष्यके समान आकारसे संयुक्त इन वानरोंको देखकर आश्चर्यको प्राप्त हुआ था ॥१८१।। वह राजा नाना प्रकारकी चेष्टाओंको धारण करनेवाले इन वानरोंके साथ बड़ी प्रसन्नतासे क्रीड़ा करता था तथा उसीने इन वानरोंको मधुर आहार-पानी १. दर्शयन्ती च म. । २. किन्नरात् म. । किन्नरान् क.।
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