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पद्मपुराणे देहलीपिण्डिकामागं पनरागविनिर्मितम् । ताम्बूलेनेव सच्छायं धारयन्त्यो रदच्छदम् ॥२६॥ द्वारोपरि समायुक्तमुक्तादामांशुसंपदा । हसन्स्य इव शेषाणां भवनानां सुरूपताम् ॥१२७॥ शशाङ्कसदृशाकारैर्मणिभिः शिखराहितैः । रजनीष्वपि कुर्वाणा संदेहं रजनीकरे ॥१२८॥ चन्द्रकान्तमणिच्छायाकल्पितोदारचन्द्रिकाः । नानारत्नप्रमापक्तिसंदिग्धोत्तगतोरणाः ॥१२९॥ मणिकुटिमविन्यस्तरत्नपमावलिक्रियाः । पतयस्तत्र गेहाना खेचरैर्विनिवेशिताः ॥१३०॥ शुष्कसागरविस्तीर्णा मणिकाञ्चनवालुकाः । राजमार्गाः कृतास्तस्मिन् कौटिल्यपरिवर्जिताः ॥१३॥ प्राकारस्तत्र विन्यस्तो रत्नच्छायाकृतावृतिः । शिखराप्रैः श्रिया दर्यात सौधर्ममिव ताडयन् ॥१३२॥ गोपुराणि च तुङ्गानि न्यस्तान्यन मरीचिभिः । मणीनां यानि लक्ष्यन्ते स्थगितानीव सर्वदा ॥१३३॥ पुरन्दरपुराकारे पुरे तस्मिन् चिराय सः । पनया सहितो रेमे शच्येव 'विबुधाधिपः ॥१३॥ भद्रशालवने योनि तथा सौमनसे वने । नन्दने वा न तान्यस्य द्रव्याण्यापुर्दुरापताम् ॥१३५॥ कदाचिदथ तत्रासौ तिष्ठन् प्रासादमूर्धनि । व्रजन्तं वन्दनामक्त्या द्वीपं नन्दीश्वरश्रुतिम् ॥१३६॥ पाकशासनमैक्षिष्ट सत्रा देवश्चतुर्विधैः । मुकुटानां प्रमाजालैः पिशङ्गितनभस्तलम् ॥१३७॥ कुर्वन्तं वधिरं लोकं समस्तं तूर्यनिःस्वनैः । हस्तिभिर्वाजिमिहंसैमेषैरुष्ट्र कर्मगैः ।।१३८॥ अन्यैश्च विविधैर्यानैः परिवगैरधिष्ठितः । अन्वीयमानं दिव्येन गन्धेन व्याप्तविष्टपम् ।।१३९।। ततस्तेन श्रुतं पूर्व मुनिभ्यः संकथागतम् । स्मृतं नन्दीश्वरद्वीपं नन्दनं स्वर्गवासिनाम् ॥१४॥ स्मृत्वा च विबुधैः सार्चमकरोद् गमने मतिम् । खेचरैश्च समं सर्वः समारूढो मरुत्पथम् ॥१४॥
स गच्छन् क्रौञ्चयुक्तेन विमानेन सहाङ्गनः । मानुषोत्तरशैलेन निवारितगतिः कृतः ॥१४२॥ और जिनकी किरणोंसे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो अन्य भवनोंकी सुन्दरताकी हँसी ही उड़ा रही हों। शिखरोंके ऊपर चन्द्रमाके समान आकारवाले मणि लगे हुए थे उनसे जो रात्रिके समय असली चन्द्रमाके विषयमें संशय उत्पन्न कर रहे थे। अर्थात् लोग संशयमें पड़ जाते थे कि असली चन्द्रमा कौन है ? चन्द्रकान्त मणियोंकी कान्तिसे जो भवन उत्तम चाँदनीकी शोभा प्रकट कर रहे थे तथा जिनमें लगे नाना रत्नोंकी प्रभासे ऊंचे-ऊंचे तोरणद्वारोंका सन्देह हो रहा था जिनके मणिनिर्मित फर्शोपर रत्नमयी कमलोंके चित्राम किये गये थे ॥१२४-१३०॥ उस नगरमें कुटिलतासे रहित-सीधे ऐसे राजमार्ग बनाये गये थे जिनमें कि मणियों और सुवर्णकी धूलि बिखर रही थी तथा जो सूखे सागरके समान लम्बे-चौड़े थे ॥१३१॥ उस नगरमें ऊंचे-ऊंचे गोपुर बनाये गये थे जो मणियोंकी किरणोंसे सदा आच्छादित-से रहा करते थे ॥१३२॥ इन्द्रपुरके समान सुन्दर उस नगरमें राजा श्रीकण्ठ अपनी पद्माभा प्रियाके साथ, इन्द्र-इन्द्राणीके समान चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा ॥१३३॥ भद्रशालवन, सौमनसवन तथा नन्दनवनमें ऐसी कोई वस्तु नहीं थी जो उसे दुर्लभ रही हो ॥१३४॥ अथानन्तर किसी एक दिन राजा श्रीकण्ठ महलको छतपर बैठा था उसी समय नन्दीश्वर द्वीपकी वन्दना करनेके लिए चतुर्विध देवोंके साथ इन्द्र जा रहा था। वह इन्द्र मुकुटोंकी कान्तिसे आकाशको पीतवर्ण कर रहा था, तुरही बाजोंके शब्दसे समस्त लोकको बधिर बना रहा था, अपने-अपने स्वामियोंसे अधिष्ठित हाथी, घोड़े, हंस, मेढ़ा, ऊँट, भेड़िया तथा हरिण आदि अन्य अनेक वाहन उसके पीछे-पीछे चल रहे थे, और उसकी दिव्य गन्धसे समस्त लोक व्याप्त हो रहा था ॥१३५-१३९।। श्रीकण्ठने पहले मुनियोंके मुखसे नन्दीश्वर द्वीपका वर्णन सुना था सो देवोंको आनन्दित करनेवाला वह नन्दीश्वर द्वीप उसकी स्मतिमें आ गया ॥१४०॥ स्मृतिमें आते ही उसने देवोंके साथ नन्दीश्वर द्वीप जानेका विचार किया। विचारकर वह समस्त विद्याधरोंके साथ आकाशमें आरूढ़ हुआ ॥१४१॥ जिसमें विद्यानिर्मित क्रौंचपक्षी जुते थे ऐसे विमानपर अपनी १. इन्द्रः । २. याति म., ख.। ३. वन्दनां म.। ४. मुनिभिः म. ।
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