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पद्मपुराणे एवं नानाविधास्तस्मिन् देशा विविधपादपैः । मण्डिता यान् समालोक्य स्वर्गभूरपि नेक्ष्यते ॥१०॥ 'जीवंजीवकयुग्माना व्यक्तवाचां समं शुकैः । आलापः सारिकाभिश्च तस्मिन्नद्भुतकारणम् ॥१०॥ ततः नानातरुच्छायामण्डलस्थेषु हारिषु । रत्नकाञ्चनदेहेषु पुष्पामोदानुलेपिषु ॥१०२॥ शिलातलेषु विश्रब्धं निविष्टः सेनया समम् । करणीयं च निःशेषं स चक्रे वपुषः सुखम् ।।१०३॥ ततो नानाप्रसूनानां हंससारसनादिनाम् । विमलोदकपूर्णानां सरसा मीनकम्पिनाम् ॥१०४॥ किरतां पुष्पनिकरं तरूणां च महात्विषाम् । जयशब्दमिवोदात्तं कुर्वतां पक्षिनिःस्वनैः ॥१०५॥ नानारत्नचितानां च भूमागानां सुशोभया । युक्तं भ्रमति स द्वीपमित श्चेतश्च तं सुखी ॥१०६॥ ततः स विहरंस्तस्मिन्वने नन्दनसंनिभे । यथेच्छं क्रीडतोऽपश्यद् वानरान् बहुविभ्रमान् ॥१०७॥ अचिन्तयच्च दृष्ट्वैतां सृष्टेरतिविचित्रताम् । तिर्यग्योनिगता ह्येते कथं मानुषसंनिभाः ॥१०८॥ वदनं पाणिपादं च शेषांश्चावयवानमी । दधते मानुषाकारांश्चेष्टां तेषां च संनिमाम् ॥१०९॥ ततस्तैमहती रन्तं प्रीतिरस्य समुच्छ्रिता । यथा स्थिरोऽप्यसौ राजा नितान्तं प्रवणीकृतः ॥११०॥ जगाद च समासन्नान् पुरुषान् वदनेक्षिणः । एतानानयत क्षिप्रमिति विस्मितमानसः ॥११॥ इत्युक्तैः शतशस्तस्य प्लवङ्गा गगनायनैः । उपनीताः प्रमोदेन कृतकेलिकलस्वनाः ॥११२॥
सुशीलैस्तैरसौ साकं रन्तुं प्रववृते नृपः । नर्तयन् तालशब्देन बाहुभ्यां च परामृशन् ॥११३॥ इस तरह नाना प्रकारके वृक्षोंसे सुशोभित वहाँके प्रदेश नाना रंगके दिखाई देते थे। वे प्रदेश इतने सुन्दर थे कि उन्हें देखकर फिर स्वर्गके देखनेकी इच्छा नहीं रहती थी॥१००।। तोताओंके समान स्पष्ट बोलनेवाले चकोर और चकोरीका जो मैनाओंके साथ वार्तालाप होता था वह उस वानरद्वीपमें सबसे बड़ा आश्चर्यका कारण था।।१०१॥
तदनन्तर वह श्रीकण्ठ, नाना प्रकारके वृक्षोंकी छायामें स्थित, फूलोंकी सुगन्धिसे अनुलिप्त, रत्नमय तथा सुवर्णमय शिलातलोंपर सेनाके साथ बैठा और वहीं उसने शरीरको सुख पहुंचानेवाले समस्त कार्य किये ॥१०२-१०३॥ तदनन्तर-जिनमें नाना प्रकारके पुष्प फूल रहे थे, हंस और सारस पक्षी शब्द कर रहे थे, स्वच्छ जल भरा हुआ था और जो मछलियोंके संचारसे कुछ-कुछ कम्पित हो रहे थे ऐसे मालाओंकी, तथा फूलोंके समूहकी वर्षा करनेवाले, महाकान्तिमान् और पक्षियोंकी बोलीके बहाने मानो जोर-जोरसे जय शब्दका उच्चारण करनेवाले वृक्षोंकी, एवं नाना प्रकारके रत्नोंसे व्याप्त भूभागों-प्रदेशोंकी सुषमासे युक्त उस वानर द्वीपमें श्रीकण्ठ जहाँ-तहाँ भ्रमण करता हुआ बहुत सुखी हुआ ॥१०४-१०६॥ तदनन्तर नन्दन वनके समान उस वनमें विहार करते हए श्रीकण्ठने इच्छानुसार क्रीड़ा करनेवाले अनेक प्रकारके वानर देखे॥१०७॥ सष्टिको इस विचित्रताको देखकर श्रीकण्ठ विचार करने लगा कि देखो ये वानर तिर्यंच योनिमें उत्पन्न हुए है फिर भी मनुष्यके समान क्यों हैं ? ॥१०८॥ ये वानर मुख, पैर, हाथ तथा अन्य अवयव भी मनुष्यके अवयवोंके समान ही धारण करते हैं। न केवल अवयव ही, इनकी चेष्टा भी मनुष्योंके समान है ॥१०९।। तदनन्तर उन वानरोंके साथ क्रीड़ा करनेकी श्रीकण्ठके बहुत भारी इच्छा उत्पन्न हुई। यद्यपि वह स्थिर प्रकृतिका राजा था तो भी अत्यन्त उत्सुक हो उठा ॥११०।। उसने विस्मित चित्त होकर मुखकी ओर देखनेवाले निकटवर्ती पुरुषोंको आज्ञा दी कि इन वानरोंको शीघ्र ही यहाँ लाओ ॥१११॥ कहनेकी देर थी कि विद्याधरोंने सैकड़ों वानर लाकर उनके समीप खड़े कर दिये। वे सब वानर हर्षसे कल-कल शब्द कर रहे थे ॥११२॥ राजा श्रीकण्ठ उत्तम स्वभावके धारक उन वानरोंके साथ क्रीड़ा करने लगा। कभी वह ताली बजाकर उन्हें नचाता था, कभी अपनी भुजाओंसे उनका स्पर्श करता था और कभी १. चकोरयुगलाम् । २. महत्विषाम् म.। ३. -मिवोद्दातं म.। ४. मानुषाकारां म.। ५. समुत्थिता म. । ६. वदनेक्षण: म. !
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