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षष्ठं पर्व
१०३
पश्यनीलमणिच्छायं गतं नम इव क्षितिम् । महाग्राहकृताकम्पं समुद्रं विस्मयाकुलः ॥८६॥ ततश्च तं वरद्रीपं प्राप्तः स्वर्गमिवापरम । व्याहरन्तमिवास्यच्चैः स्वागतं निर्झरस्वनैः ॥८॥ निर्झराणामतिस्थूलैः शीकरैर्योमगामिभिः । हसन्तमिव तोषेण श्रीकण्ठागमजन्मना ॥८॥ विचित्रमणिसंभूतप्रभाजालेन चारुणा। उच्छ्रिता इव संघातास्तोरणानां समुन्नताः ॥८९॥ ततस्तमवतीर्णोऽसौ द्वीपमाश्चर्यसंकुलम् । विक्षिपन् दिक्षु सर्वासु दृष्टिं नीलोत्पलद्युतिम् ॥१०॥ खर्जुरामलकीनीपकपित्थागुरुचन्दनैः । प्लक्षार्जुनकदम्बाम्रप्रियालकदलीधवैः ॥९१॥ दाडिमीपूगकङ्कोललवङ्गवकुलैस्तथा । रम्यैरन्यैश्च विविधैः पादपैरुपशोभितम् ॥९२॥ मणिवृक्षा इवोद्भिय क्षितिं ते तत्र निःसृताः । स्वस्मिन् निपतितां दृष्टिं नेतुमन्यत्र नो ददुः ॥१३॥ प्रगुणाः काण्डदेशेषु विस्तीर्णाः स्कन्धबन्धने । उपरिच्छत्रसंकाशा घनपल्लवराशयः ॥९॥ शाखामिः सुप्रकाशामिनतामिः कुसुमोत्करैः । फलैश्च सरसाः स्वादैः प्राप्ताः संतानमुत्तमम् ॥९५॥ नात्यन्तमुन्नतिं याता न च याता निखर्वताम् । अनायासाङ्गनाप्राप्य प्रसूनफलपल्लवाः ॥१६॥ स्तबकस्तनरम्यामिर्भङ्गनेत्राभिरादरात् । आलिङ्गिताः सुवल्लीभिश्चलपल्लवपाणिमिः ॥९७॥ परस्परसमुल्लापं कुर्वाणा इव पक्षिणाम् । मनोहरेण नादेन गायन्त इव षट्पदैः ॥९॥
केचिच्छसदलच्छायाः केचिद्धेमसमविषः । केचित्पङ्कजसंकाशाः केचि रैडूर्यसंनिभाः ॥९९॥ गया ॥८५॥ प्रथम ही वह समुद्रको देखकर आश्चर्यसे चकित हो गया। वह समुद्र नीलमणिके समान कान्तिवाला था इससे ऐसा जान पड़ता था मानो नीला आकाश ही पृथिवीपर आ गया हो तथा बड़े-बड़े मगरमच्छ उसमें कम्पन पैदा कर रहे थे॥८६॥ तदनन्तर उसने वानरद्वीपमें प्रवेश किया। वह द्वीप क्या था मानो दूसरा स्वर्ग ही था, और झरनोंके उच्च स्वरसे ऐसा जान पड़ता था मानो स्वागत शब्दका उच्चारण ही कर रहा था ॥८७॥ झरनोंके बड़े-बड़े छोटे उछलकर आकाश में पहुँच रहे थे उनसे वह द्वीप ऐसा लगता था मानो श्रीकण्ठके आगमनसे उत्पन्न सन्तोषसे हँस ही रहा हो ॥४८॥ नाना मणियोंकी सुन्दर कान्तिके समूहसे ऐसा जान पड़ता था मानो ऊँचे-ऊँचे तोरणों के समूह ही वहां खड़े किये गये हों ।।८९॥ तदनन्तर समस्त दिशाओंमें अपनी नीली दृष्टि चलाता हुआ श्रीकण्ठ आश्चर्यसे भरे हुए उस वानरद्वीपमें उतरा ॥९०॥ वह द्वीप खजूर, आँवला, नीप, कैंथा, अगरु चन्दन, बड़, कोहा, कदम्ब, आम, अचार, केला, अनार, सुपारी, कंकोल, लौंग तथा अन्य अनेक प्रकारके सून्दर-सुन्दर वक्षोंसे सुशोभित था ॥९१-९२।। वहाँ वे सब वक्ष इतने सुन्दर जान पड़ते थे मानो पृथिवीको विदीर्ण कर मणिमय वृक्ष ही बाहर निकले हों और इसीलिए वे अपने ऊपर पड़ी हुई दृष्टिको अन्यत्र नहीं ले जाने देते थे ॥९३।। उन सब वृक्षोंके तने सीधे थे, जहाँसे डालियाँ फूटती हैं ऐसे स्कन्ध अत्यन्त मोटे थे, ऊपर सघन पत्तोंकी राशियाँ छत्रोंके समान सुशोभित थीं, देदीप्यमान तथा कुछ नीचे की ओर झुकी हुई शाखाओंसे, फूलोंके समूहसे और मधुर फलोंसे वे सब उत्तम सन्तानको प्राप्त हुए-से जान पड़ते थे॥९४-९५।। वे सब वृक्ष न तो अत्यन्त ऊँचे थे, न अत्यन्त नीचे थे, हाँ, इतने अवश्य थे कि स्त्रियाँ उनके फूल, फल और पल्लवोंको अनायास ही पा लेती थीं ॥९६॥ जो गुच्छेरूपी स्तनोंसे मनोहर थीं, भ्रमर ही जिनके नेत्र थे, और चंचल पल्लव ही जिनके हाथ थे ऐसी लतारूपी स्त्रियाँ बड़े आदरसे उन वृक्षोंका आलिंगन कर रही थीं ॥९७। पक्षियोंके मनोहर शब्दसे वे वृक्ष ऐसे जान पड़ते थे मानो परस्परमें वार्तालाप ही कर रहे हों और भ्रमरों की मधुर झंकारसे ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो गा ही रहे हों ॥९८॥ कितने ही वृक्ष शंखके टुकड़ोंके समान सफेद कान्तिवाले थे, कितने ही स्वर्णके समान पीले रंगके थे. कितने दी कमलके समान गुलाबी रंगके थे और कितने ही वैदूर्यमणिके समान नीले वर्णके थे ॥१९॥ १. प्राप्तस्वर्ग- म. । २. इच्छिता म. । ३. चिक्षिपन् म. । ४. समालापं ख. ।
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