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षष्ठं पर्व
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'वीक्षमाणः सितान् दन्तान् दाडिमोपुष्पलोहिते । अवटीटे मुखे तेषां भास्वत्काञ्चनतारके ॥ ११४ ॥ यूकापनयनं पश्यन् विनयेन परस्परम् । प्रेम्णा च कलहं रम्यं कृतखोत्कारनिःस्वनम् ॥ ११५ ॥ शालिशुकसमच्छायान्मृदिमातिशयान्वितान् । विधूतान् मृदुवातेन केशान् सीमन्तमाजिनः ॥ ११६ ॥ कर्णान् विदूषकासक्तश्रवणाकारधारिणः । नितान्तकोमलश्लक्ष्णानचलद्वपुषां स्पृशन् ॥११७॥ विलोमानि नयँ लोमान्युदरे मुष्टमापिनि । उत्क्षिपश्च भ्रुवोऽपाङ्गदेशान् रेखावतस्तथा ॥ ११८ ॥ ततस्ते तेन बहवः पुरुषाणां समर्पिताः । मृष्टाशनादिभिः कर्तुं पोषणं रतिहेतवः ॥ ११९ ॥ ग्राहयित्वा च तान् किष्कुमारोहदृष्टतमानसः । प्रात्रकूटैर्लताभिश्च निर्झरैस्तरुभिस्तथा ॥१२०॥ तत्रापश्यत् स विस्तीर्णां वैषम्यरहितां भुवम् । गुप्तां प्रान्ते महामानैर्ग्रावभिः सोन्नतद्रुमैः ॥१२१॥ पुरं तत्र महेच्छेन ख्यातं किष्कुपुराख्यया । निवेशितमरातीनां मानसस्यापि दुर्गमम् ॥ १२२ ॥ प्रमाणं योजनान्यस्य चतुर्दश समन्ततः । त्रिगुणं परिवेषेण लेशतश्चाधिकं भवेत् ॥ १२३ ॥ संमुखद्वारविन्यासा मणिकाञ्चनभित्तयः । प्रग्रीवकसमायुक्ता रत्नस्तम्भसमुच्छ्रिताः ॥ १२४ ॥ कपोतपाल्युपान्तेषु महानीलविनिर्मिताः । रत्नभाभिर्निरस्तस्य ध्वान्तस्येवानुकम्पिताः ॥ १२५ ॥
अनारके फूल के समान लाल, चपटी नाकसे युक्त एवं चमकीली सुनहली कनीनिकाओंसे युक्त उनके मुखमें उनके सफेद दाँत देखता था ॥ ११३ - ११४|| वे वानर परस्परमें विनयपूर्वक एक दूसरे जुएँ अलग कर रहे थे, और प्रेमसे खो-खो शब्द करते हुए मनोहर कलह करते थे । राजा श्रीकण्ठने यह सब देखा || १९५ || उन वानरोंके बाल धानके छिलके के समान पीले थे, अत्यन्त कोमल थे, मन्द मन्द वायुसे हिल रहे थे और मांगसे सुशोभित थे । इसी प्रकार उनके कान विदूषकके कानोंके समान कुछ अटपटा आकारवाले, अत्यन्त कोमल और चिकने थे । राजा श्रीकण्ठ उनका बड़े प्रेमसे स्पर्श कर रहा था और इस मोहनी सुरसुरीके कारण उनके शरीर निष्कम्प हो रहे थे । ११६-११७॥ उन वानरोंके कृश पेटपर जो-जो रोम अस्तव्यस्त थे उन्हें यह अपने स्पर्शंसे ठीक कर रहा था, साथ ही भौंहोंको तथा रेखासे युक्त कटाक्ष- प्रदेशों को कुछ-कुछ ऊपर की ओर उठा रहा था ॥ ११८ ॥ तदनन्तर श्रीकण्ठने प्रीतिके कारणभूत बहुत-से वानर मधुर अन्न-पान आदिके द्वारा पोषण करनेके लिए सेवकोंको सौंप दिये ॥ ११९ ॥ इसके बाद पहाड़ के शिखरों, लताओं, निर्झरनों और वृक्षोंसे जिसका मन हरा गया था ऐसा श्रीकण्ठ उन वानरों को लिवाकर किष्कु पर्वतपर चढ़ा || १२०|| वहाँ उसने लम्बी-चौड़ी, विषमतारहित तथा अन्तमें ऊँचे-ऊँचे वृक्षोंसे सुशोभित उत्तुंग पहाड़ोंसे सुरक्षित भूमि देखी ॥ १२१ ॥ उसी भूमिपर उसने किष्कुपुर नामका एक नगर बसाया। यह नगर शत्रुओंके शरीरकी बात तो दूर रहे मनके लिए भी दुर्गम था ॥ १२२ ॥ यह नगर चौदह योजन लम्बा-चौड़ा था और इसकी परिधि - गोलाई बयालीस योजनसे कुछ अधिक थी ॥ १२३ ॥ इस नगर में विद्याधरोंने महलोंकी ऐसी-ऐसी ऊँची श्रेणियाँ बनाकर तैयार की थीं कि जिनके सामने उत्तुंग दरवाजे थे, जिनकी दीवालें मणि और सुवर्णसे निर्मित थीं, जो अच्छे-अच्छे बरण्डोंसे सहित थीं, रत्नोंके खम्भोंपर खड़ी थीं। जिनकी कपोतपाली के समीपका भाग महानील मणियोंसे बना था और ऐसा जान पड़ता था कि रत्नोंकी कान्तिने जिस अन्धकारको सब जगहसे खदेड़कर दूर कर किया था मानो उसे यहाँ अनुकम्पावश स्थान ही दिया गया था। जिन महलोंकी देहरी पद्मरागमणियोंसे निर्मित होनेके कारण लाल-लाल दिख रही थीं इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो ताम्बूलके द्वारा जिसकी लाली बढ़ गयी थी ऐसा ओठ ही धारण कर रही हों । जिनके दरवाजोंके ऊपर अनेक मोतियोंकी मालाएं लटकायी गयी थीं
१. वीक्ष्यमाण: म., ख. । २. नते । ३. कृतपोत्कार निःस्वनं ख. । ४. विदूषकान् सक्त क. । ५. दूधृतमानसः म । ६. कपोल -म. ।
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