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पद्मपुराणे तस्य योग्या गुणैः कन्या रूपेण च कुलेन च । समानयोः समायोगं करोतु विधिरिष्यताम् ॥४२॥ न चास्ति कारणं किंचित् सेनयोः संक्षये कृते । स्वभाव एवं कन्यानां यत्परागारसेवनम् ॥४३॥ दूतो यावद्ब्रवीत्येवं तावदूती समागता । पद्मया प्रेषिता तस्य दुहित्रेदमभाषत ॥४४॥ ब्रवीति देव पद्मेदं कृत्वा चरणवन्दनम् । स्वयं ते गदितुं शक्ता अपया नेति नागता ॥४५॥ तात स्वल्पापि नास्त्यत्र श्रीकण्ठस्यापराधिता । मया कर्मानुमावेन स्वयमेव प्रचोदितः ॥४६॥ यतः सत्कुलजातानां गतिरेषैव योषिताम् । विमुच्यैनमतोऽन्यस्य नरस्य नियमो मम ॥४७॥ इति विज्ञापितो दूत्या चिन्तामेतामसौ श्रितः । किंकर्तव्यं विमूढेन चेतसा विक्लवीकृतः ॥४८॥ 'शुद्धाभिजनता मुख्या गुणानां वरभाजिनाम् । तस्मिँश्च संभवत्येषे पक्षं च बलिनं श्रितः ॥४९॥ अभिमानात्तथाप्येनं विनेतुं शक्तिरस्ति मे । स्वयमेव तु कन्यायै रोचते क्रियतेऽत्र किम् ॥५०॥ अभिप्रायं ततस्तस्य ज्ञात्वा ते हर्षनिर्भराः । समं दूत्या गता दूता शशासुश्च यथोदितम् ॥५१॥ सुताविज्ञापनात् त्यक्तक्रोधभारोऽभिमानवान् । पुष्पोत्तरो गतः स्थानमात्मीयं परमार्थवित् ॥५२॥ शुक्लायां मार्गशीर्षस्य पक्षतावथ शोभने । मुहूर्ते विधिना वृत्तं पाणिग्रहणमेतयोः ॥५३॥ इति श्रीकण्ठमाहेदं प्रीत्यात्यन्तमुदारया। प्रेरितः कीर्तिधवलो वचनं कृतनिश्चयम् ॥५४॥ वैरिणो बहवः सन्ति विजया गिरौ तव । अप्रमत्ततया कालं कियन्तं गमयिष्यसि ॥५५॥ अतस्तिष्ठ त्वमत्रव रम्ये रत्नालयान्तरे । निजाभिरुचिते स्थाने स्वेच्छया कृतचेष्टितः ॥५६॥
पर्याप्नोति परित्यक्तं न च त्वां मम मानसम् । मत्प्रीतिवागुरां छित्वा कथं वा त्वं गमिष्यसि ॥५७॥ तुम्हारी कन्या गुण, रूप तथा कुल सभी बातोंमें उसके योग्य है। इस प्रकार अनुकूल भाग्य, दो समान व्यक्तियोंका संयोग करा दे तो उत्तम है ॥४२॥ जब कि दूसरेके घरकी सेवा करना यह कन्याओंका स्वभाव ही है तब दोनों पक्षकी सेनाओंका क्षय करने में कोई कारण दिखाई नहीं देता ॥४३॥ दूत इस प्रकार कह ही रहा था कि इतने में पुत्री पद्माभाके द्वारा भेजी हुई दूती आकर पुष्पोत्तरसे कहने लगी॥४४॥ कि हे देव ! पद्मा आपके चरणोंमें नमस्कार कर कहती है कि मैं लज्जाके कारण आपसे स्वयं निवेदन करनेके लिए नहीं आ सकी हूँ॥४५।। हे तात ! इस कार्यमें श्रीकण्ठका थोड़ा भी अपराध नहीं है। कर्मों के प्रभावसे मैंने इसे स्वयं प्रेरित किया था ॥४६॥ चूंकि सत्कुलमें उत्पन्न हुई स्त्रियोंकी यही मर्यादा है अतः इसे छोड़कर अन्य पुरुषका मेरे नियम है-त्याग है ॥४७॥ इस प्रकार दूतीके कहनेपर 'अब क्या करना चाहिए' इस चिन्ताको प्राप्त हुआ। उस समय वह अपने किंकर्तव्यविमूढ़ चित्तसे बहुत दुःखी हो रहा था ॥४८॥ उसने विचार किया कि वरमें जितने गुण होना चाहिए उनमें शुद्ध वंशमें जन्म लेना सबसे प्रमुख है । यह गुण श्रीकण्ठमें है ही उसके सिवाय यह बलवान् पक्षकी शरणमें आ पहुँचा है ॥४९॥ यद्यपि इसका अभिमान दूर करनेकी मुझमें शक्ति है, पर जब कन्याके लिए यह स्वयं रुचता है तब इस विषयमें क्या किया जा सकता है ? ॥५०॥ तदनन्तर पुष्पोत्तरका अभिप्राय जानकर हर्षसे भरे दूत, दूतीके साथ वापस चले गये और सबने जो बात जैसी थी वैसी ही राजा कीर्तिधवलसे कह दी ॥५१॥ पुत्रीके कहनेसे जिसने क्रोधका भार छोड़ दिया था ऐसा अभिमानी तथा परमार्थको जाननेवाला राजा पूष्पोत्तर अपने स्थानपर वापस चला गया ॥५२॥ अथानन्तर मार्गशीर्ष शुक्ल पक्षकी प्रतिपदाके दिन शुभमुहूर्त में दोनोंका विधिपूर्वक पाणिग्रहण संस्कार हुआ ॥५३॥ एक दिन उदार प्रेमसे प्रेरित कीर्तिधवलने श्रीकण्ठसे निश्चयपूर्ण निम्नांकित वचन कहे ॥५४॥ चूँकि विजया पर्वतपर तुम्हारे बहुत-से वैरी हैं अतः तुम सावधानीसे कितना काल बिता सकोगे ॥५५।। लाभ इसीमें है कि तुम्हें जो स्थान रुचिकर हो वहीं स्वेच्छासे क्रिया करते हुए यहीं अत्यन्त सुन्दर रत्नमयी महलोंमें निवास करो ॥५६॥ मेरा मन १. श्रद्धाभिजनिता म. । २. -त्येषा म. । ३. श्रिता । ४. पक्षे तावत्सुशोभने ख. ।
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