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पञ्चमं पर्व
अष्टभिर्दिवसः स त्वं कथं प्राप्स्यसि तर्पणम् । स्वप्नजालोपमैर्मोगैरधुना भज्यतां शमः ॥३५९॥ ततस्तस्य विषादोऽभूमायुःक्षयसमुत्थितः । किंतु संसारचक्रस्थजन्मान्तरविवर्तनात् ॥३६०॥ स्थापयित्वा ततो राज्ये तनयं देवरक्षसम् । युवराजप्रतिष्ठायां तथा भास्कररक्षसम् ॥३६१॥ त्यक्त्वा परिग्रहं सर्व परमार्थपरायणः । स्तम्मतुल्यो महारक्षा लोभेनाभवदुझितः ॥३६२।। पानाहारादिकं त्यक्त्वा सर्व देहस्य पालनम् । समः शत्रौ च मिन्ने च मनः कृत्वा सुनिश्चलम् ॥३६॥ मौनव्रतं समास्थाय जिनप्रासादमध्यगः । कृत्वा समहती पूजामहंतामभिषेकिणीम् ॥३६४॥ अर्हत्पदपरिध्यानपवित्रीकृतचेतनः । कृत्वा समाधिना कालं स बभूव सुरोत्तमः ॥३६५|| अथ किन्नेरगीताख्ये पुरे श्रीधरनामतः । विद्याजातां रतिं जायां देवरक्षाः प्रपन्नवान् ॥३६६॥ गन्धर्वगीतनगरे सुरसंनिमनामतः । गान्धारीगर्मसंभूतां गन्धर्वा मानुरूढवान् ॥३६७।। सुता दश समुत्पन्ना मनोज्ञा देवरक्षसः । देवाङ्गनासरूपाश्च षट् कन्या गुणभूषणाः ॥३६८॥ तावन्त एव चोत्पन्नाः सुताः कन्याश्च तत्समाः । आदित्यरक्षसो राज्ञः कीर्तिव्याप्तदिगन्तराः ॥३६९।। स्वनामसहनामानि महान्ति नगराणि नैः । निवेशितानि रम्याणि श्रेणिकैतानि जित्वरैः ॥३७०॥ सन्ध्याकारः सुवेलश्च मनोह्लादो मनोहरः । हंसद्वीपो हरियोधः समुद्रः काञ्चनस्तथा ॥३७१॥ अर्धस्वर्गोत्कटश्चापि निविशाः स्वर्गसंनिभाः । गीर्वाणरक्षसः पुत्रर्महाबुद्धिपराक्रमैः ॥३७२॥
वह तू केवल आठ दिन तक प्राप्त होनेवाले स्वप्न अथवा इन्द्रजाल सदृश भोगोंसे कैसे तृप्त होगा? इसलिए अब भोगोंकी अभिलाषा छोड और शान्ति भाव धारण कर ॥३५८-३५९।। तदनन्तर मुनिराजके मुखसे अपनी आयुका क्षय निकटस्थ जानकर उसे विषाद नहीं हुआ किन्तु 'इस संसारचक्रमें अब भी मुझे अनेक भव धारण करना है' यह जानकर कुछ खेद अवश्य हुआ ||३६०।। तदनन्तर उसने अमररक्ष नामक ज्येष्ठ पुत्रको राज्यपदपर स्थापित कर भानुरक्ष नामक लघु पुत्रको युवराज बना दिया ॥३६१।। और स्वयं समस्त परिग्रहका त्याग कर परमार्थमें तत्पर हो स्तम्भके समान निश्चल होता हुआ लोभसे रहित हो गया ॥३६२।। शरीरका पोषण करनेवाले आहारपानी आदि समस्त पदार्थोंका त्याग कर वह शत्रु तथा मित्रमें सम-मध्यस्थ बन गया और मनको निश्चल कर मौन व्रत ले जिन-मन्दिरके मध्य में बैठ गया। इन सब कार्योंके पहले उसने अर्हन्त भगवान्की अभिषेकपूर्वक विशाल पूजा की ॥३६३-३६४॥ अर्हन्त भगवान्के चरणोंके ध्यानसे जिसकी चेतना पवित्र हो गयी थी ऐसा वह विद्याधर समाधिमरण कर उत्तम देव हुआ ॥३६५।।
अथानन्तर अमररक्षने, किन्नरगीत नामक नगरमें श्रीधर राजा और विद्या रानीसे समुत्पन्न रति नामक स्त्रीको प्राप्त किया अर्थात् उसके साथ विवाह किया ॥३६६।। और भानुरक्षने गन्धर्वगीत नगरमें राजा सुरसन्निभ और गान्धारी रानीके गर्भसे उत्पन्न, गन्धर्वा नामकी कन्याके साथ विवाह किया ॥३६७|| अमररक्षके अत्यन्त सुन्दर दस पुत्र और देवांगनाओंके समान सुन्दर रूपवाली, गुणरूप आभूषणोंसे सहित छह पुत्रियाँ उत्पन्न हुईं ॥३६८।। इस प्रकार भानुरक्षके भी अपनी कीर्तिके द्वारा दिदिगन्तको व्याप्त करनेवाले दस पुत्र और छह पुत्रियां उत्पन्न हुई ॥३६९।। हे श्रेणिक ! उन विजयी राजपुत्रोंने अपने नामके समान नामवाले बड़े-बड़े सुन्दर नगर बसाये ॥३७०॥ उन नगरोंके नाम सुनो-१ सन्ध्याकार, २ सुवेल, ३ मनोह्लाद, ४ मनोहर, ५ हंसद्वीप, ६ हरि, ७ योध, ८ समुद्र, ९ कांचन और १० अर्धस्वर्गोत्कृष्ट । स्वर्गकी समानता रखनेवाले ये दस नगर, महाबुद्धि और पराक्रमको धारण करनेवाले अमररक्षके पुत्रोंने बसाये थे ॥३७१-३७२।।
१. तप्यंणम् म.। २. किन्नरदान्ताख्ये ख., किन्नरनादाख्ये म. । ३. जातामरिजायां म. । ४. नगरेऽमरसन्निभ क.। ५. सुरूपाश्च क.। ६. दिवश्चापि ज., दशश्चापि क.।
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