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पत्र पर्व
एष राक्षसवंशस्य संभवः परिकीर्तितः । वंशप्रधानपुरुषान् कीर्तयिष्याम्यतः परम् ॥३८७n पुत्रो मीमप्रमस्यायः पूजा) नाम विश्रुतः । प्रवव्राज श्रियं न्यस्य तनये जितमास्करे ॥३८॥ सोऽपि संपरिकीाख्ये स्थापयित्वा श्रियं सुते । प्रावजत् सोऽपि सुग्रीवे निधाय प्राप दीक्षणम् ॥३८९॥ सग्रीवोऽपि हरिग्रीवं संनिवेश्य निजे पदे । उग्रं तपः समाराध्य बभूव सुरसत्तमः ॥३९॥ हरिग्रीवोऽपि निक्षिप्य श्रीग्रीवे राज्यसंपदम् । गृहीतश्रमणाचारो वनान्तरमशिश्रियत् ॥३९॥ आरोप्य सुमुखे राज्यं श्रीग्रीवो जनकाश्रितम् । मार्गमाश्रितवान् वीरः सुव्यक्ते सुमुखस्तथा ॥३९२॥ सुव्यक्तोऽमृतवेगाख्ये न्यस्तवान् राक्षसीं श्रियम् । स चापि मानुगत्याहे स च चिन्तागतौ सुते ॥३९३॥ इन्द्र इन्द्रप्रमो मेघो मृगारिदमनः पविः । इन्द्रजिद्भानुवर्मा च मानुर्भानुसमप्रमः ॥३९॥ सुरारिस्त्रिजटो भीमो मोहनोद्वारको रविः । चकारो वज्रमध्यश्च प्रमोदः सिंहविक्रमः ॥३९५॥ चामुण्डो मारणो मीष्मो द्विपवाहोरिमर्दनः । निर्वाणभक्तिरुयश्रीरहद्भक्तिरनुत्तरः ॥३९६॥ गतभ्रमोऽनिलश्चण्डो लङ्काशोको मयूरवान् । महाबाहुर्मनोरम्यो भास्करामो बृहद्गतिः ॥३९७॥ बृहत्कान्तोऽरिसंत्रासश्चन्द्रावतॊ महारवः । मेघवानगृहक्षोभनक्षत्रदमनादयः ॥३९८॥ 'अभिधाः कोटिशस्तेषां द्रष्टव्याम्बरचारिणाम् । मायावीर्यसमेताना विद्याबलमहारुचाम् ॥३९९॥ विद्यानुयोगकुशलाः सर्वे श्रीसक्तवक्षसः । लङ्कायां स्वामिनः कान्ताः प्रायशः स वगंतश्च्युताः ॥४०॥ स्वेषु पुत्रेषु निक्षिप्य लक्ष्मी वंशक्रमागताम् । संविग्ना राक्षसाधीशा महाप्रोवज्यमास्थिताः ॥४०१॥ केचित कर्मावशेषेण त्रिलोकशिखरं गताः। दिवमीयुः परे केचित् पुण्यपाकानुमावतः ॥४०२॥
द्वीपकी रक्षा करते थे इसलिए वह द्वीप राक्षस नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ और उस द्वीपके रक्षक विद्याधर राक्षस कहलाने लगे ॥३८६।। गौतमस्वामी राजा श्रेणिकसे कहते हैं कि हे राजन् ! यह राक्षसवंशकी उत्पत्ति मैंने तुझसे कही । अब आगे इस वंशके प्रधान पुरुषोंका उल्लेख करूंगा। सो सन ||३८७॥ भीमप्रभका प्रथम पूत्र पूजार्ह नामसे प्रसिद्ध था सो वह अपने जितभास्कर नामक पुत्रके लिए राज्यलक्ष्मी सौंपकर दीक्षित हुआ ।।३८८॥ जितभास्कर सम्परिकीर्ति नामक पुत्रको राज्य दे मुनि हुआ और सम्परिकीर्ति सुग्रीवके लिए राज्य सौंप दीक्षाको प्राप्त हुआ ॥३८९।। सुग्रीव, हरिग्रीवको अपने पदपर बैठाकर उग्र तपश्चरणकी आराधना करता हुआ उत्तम देव हुआ ॥३९०॥ हरिग्रीव भी श्रीग्रीवके लिए राज्यसम्पत्ति देकर मुनिव्रत धार वनमें चला गया ॥३९१॥ श्रीग्रीव समखके लिए राज्य देकर पिताके द्वारा अंगीकृत मार्गको प्राप्त हआ और बलवान समखने सव्यक्त नामक पत्रको राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली ॥३९२॥ सव्यक्तने अमतवेग नामक पत्रके लिए राक्षसवंशकी सम्पदा सौंपकर तप धारण किया। अमृतवेगने भानुगतिको और भानुगतिने चिन्तागतिको वैभव समर्पित कर साधुपद स्वीकृत किया ॥३९३।। इस प्रकार इन्द्र, इन्द्रप्रभ, मेघ, मृगारिदमन, पवि, इन्द्रजित्, भानुवर्मा, भानु, भानुप्रभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिंहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म, द्विपवाह, अरिमर्दन, निर्वाणभक्ति, उग्रश्री, अर्हद्भक्ति, अनुत्तर, गतभ्रम, अनिल, चण्ड, लंकाशोक, मयूरवान्, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, बृहद्गति, बृहत्कान्त, अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महारव, मेघध्वान, गृहक्षोभ और नक्षत्रदमन आदि करोड़ों विद्याधर उस वंशमें हुए। ये सभी विद्याधर माया और पराक्रमसे सहित थे तथा विद्या, बल और महाकान्तिके धारक थे ॥३९४-३९९|| ये सभी लंकाके स्वामी, विद्यानुयोगमें कुशल थे, सबके वक्षःस्थल लक्ष्मीसे सुशोभित थे, सभी सुन्दर थे और प्रायः स्वर्गसे च्युत होकर लंकामें उत्पन्न हुए थे ।।४००। ये राक्षसवंशी राजा, संसारसे भयभीत हो वंशपरम्परासे आगत लक्ष्मी अपने पुत्रोंके लिए सौंपकर दीक्षाको प्राप्त हुए थे॥४०१|| कितने ही राजा १. संख्येवं म०। २. महाप्रावाज्यमाश्रिताः म०।
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