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षष्ठं पर्व
वंशो रक्षोनभोगानां मया ते परिकीर्तितः । शृणु वानरकेतूनां संतानमधुना नृप ॥१॥ विजया गिरे गे दक्षिणे स्वर्गसंनिभे। पुरं मेघपुरं नाम्ना तुङ्गप्रासादशोभितम् ॥२॥ विद्याभृतां पतिस्तस्मिन्नतीन्द्रो नाम विश्रुतः । 'अतिक्रम्येव यः शक्रं स्थितो भोगादिसंपदा ॥३॥ श्रीमती नाम तस्यासीत् कान्ता श्रीसमविभ्रमा। यस्याः सति मुखे पक्षो ज्योत्स्नयेव सदाभवत् ।।४।। तयोः श्रीकण्ठनामाभत् सुतः श्रतिविशारदः । यस्य नाम्नि गते कर्ण हर्षमीयर्विचक्षणाः ॥५॥ स्वसा तस्याभवच्चार्वी देवी नाम कनीयसी । बाणतां नयने यस्या गते कुसुमधन्वनः ॥६॥ अथ रत्नपुरं नाम पुरं तत्र मनोहरम् । तत्र पुष्पोत्तरो नाम विद्याधारी महाबलेः ॥७॥ तस्य पद्मोत्तरामिख्यः सुतो येन विलोचने । विषयान्तरसंबन्धाजनानां विनिवर्तिते ॥८॥ तस्मै पुष्पोत्तरः कन्यां बहुशस्तामयाचत । श्रीकण्ठेन न सा तस्मै दत्ता कर्मानुभावतः ॥९॥ सा तेन कीर्तिशुभ्राय दत्ता बान्धववाक्यतः। विवाहं च परेणास्या विधिना निरवर्तयत् ॥१०॥ न मेऽमिजनतो दोषो न मे दारिद्रयसंभवः । न च पुत्रस्य वैरूप्यं न किंचिद्वेरकारणम् ॥११॥ तयापि मम पुत्राय वितीर्ण तेन न स्वसा। इति पुष्पोत्तरो ध्यात्वा कोपावेशं परं गतः ॥१२॥
अथानन्तर-गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् श्रेणिक ! मैंने तेरे लिए राक्षसवंशी विद्याधरोंका वृत्तान्त तो कहा, अब तू वानरवंशियोंका वृत्तान्त सुन ॥१॥ स्वर्गके समान विजया पर्वतकी जो दक्षिण श्रेणी है उसमें एक मेघपुर नामका नगर है। यह नगर ऊंचे-ऊँचे महलोंसे सुशोभित है ॥२॥ वहाँ विद्याधरोंका राजा अतीन्द्र निवास करता था। राजा अतीन्द्र अत्यन्त प्रसिद्ध था और भोग-सम्पदाके द्वारा मानो इन्द्रका उल्लंघन करता था ॥३॥ उसकी लक्ष्मीके समान हाव-भाव-विलाससे सहित श्रीमती नामकी स्त्री थी। उसका मुख इतना सुन्दर था कि उसके रहते हुए सदा चाँदनीसे युक्त पक्ष ही रहा करता था ।।४। उन दोनोंके श्रीकण्ठ नामका पुत्र था । वह पुत्र शास्त्रोंमें निपुण था और जिसका नाम कणंगत होते ही विद्वान् लोग हर्षको प्राप्त कर लेते थे ॥५॥ उसके महामनोहरदेवी नामकी छोटी बहन थी। उस देवीके नेत्र क्या थे मानो कामदेवके बाण ही थे ॥६॥ अथानन्तर-रत्नपुर नामका एक सुन्दर नगर था जिसमें अत्यन्त बलवान् पुष्पोतर नामका विद्याधर राजा निवास करता था ॥७॥ अपने सौन्दर्यरूपी सम्पत्तिके द्वारा देवकन्याके समान सबके मनको आनन्दित करनेवाली पद्माभा नामकी पुत्री और पद्मोत्तर नामका पुत्र था। यह पद्मोत्तर इतना सुन्दर था कि उसने अन्य मनुष्योंके नेत्र दूसरे पदार्थोंके सम्बन्धसे दूर हटा दिये थे अर्थात् सब लोग उसे ही देखते रहना चाहते थे ॥८॥ राजा पुष्पोत्तरने अपने पुत्र पद्मोत्तरके लिए राजा अतीन्द्रकी पुत्री देवीकी बहुत बार याचना की परन्तु श्रीकण्ठ भाईने अपनी बहन पद्मोत्तरके लिए नहीं दी, लंकाके राजा कीर्तिधवलके लिए दी और बड़े वैभवके साथ विधिपूर्वक उसका विवाह कर दिया ।।९-१०॥ यह बात सुन राजा पुष्पोत्तरने बहुत कोप किया। उसने विचार किया कि देखो, न तो हमारे वंशमें कोई दोष है, न मुझमें दरिद्रतारूपी दोष है, न मेरे पुत्रमें कुरूपपना है और न मेरा उनसे कुछ वैर भी है फिर भी श्रीकण्ठने मेरे पुत्रके लिए अपनी बहन नहीं दी ॥११-१२॥ १. अतिक्रम्य च म.। अतिक्रम्यैव ख.। २. संपदः क.। ३. चार्या क.। ४. सप्तमश्लोकादनन्तरं म. पुस्तके निम्नाङ्कितः श्लोकोऽधिको वर्तते । 'पद्माभासीत्सुता तस्य मनोह्लादनकारिणी। देवकन्येव सर्वेषां रूपलावण्यसंपदा'। ५. विधिन म.I:
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